4. वित्तीय क्षेत्र में नियंत्रक की भूमिका कौन निभाता है |
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वित्तीय प्रबन्धन
वित्तीय प्रबन्धन के दक्ष एवं प्रभावी प्रबन्धन है ताकि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। वित्त प्रबन्धन का कार्य संगठन के सबसे ऊपरी प्रबन्धकों का विशिष्ट कार्य है।
वित्तीय प्रबन्धन के दक्ष एवं प्रभावी प्रबन्धन है ताकि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। वित्त प्रबन्धन का कार्य संगठन के सबसे ऊपरी प्रबन्धकों का विशिष्ट कार्य है।मनुष्य द्वारा अपने जीवन काल में प्रायः दो प्रकार की क्रियाएं सम्पादित की जाती है - आर्थिक क्रियायें तथा अनार्थिक क्रियाएं।
वित्तीय प्रबन्धन के दक्ष एवं प्रभावी प्रबन्धन है ताकि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। वित्त प्रबन्धन का कार्य संगठन के सबसे ऊपरी प्रबन्धकों का विशिष्ट कार्य है।मनुष्य द्वारा अपने जीवन काल में प्रायः दो प्रकार की क्रियाएं सम्पादित की जाती है - आर्थिक क्रियायें तथा अनार्थिक क्रियाएं।आर्थिक क्रियाओं के अर्न्तगत हम उन समस्त क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जिनमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से धन की संलग्नता होती है जैसे रोटी, कपड़े, मकान की व्यवस्था आदि। अनार्थिक क्रियाओं के अन्तर्गत पूजा-पाठ, व अन्य सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है।
वित्तीय प्रबन्धन के दक्ष एवं प्रभावी प्रबन्धन है ताकि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। वित्त प्रबन्धन का कार्य संगठन के सबसे ऊपरी प्रबन्धकों का विशिष्ट कार्य है।मनुष्य द्वारा अपने जीवन काल में प्रायः दो प्रकार की क्रियाएं सम्पादित की जाती है - आर्थिक क्रियायें तथा अनार्थिक क्रियाएं।आर्थिक क्रियाओं के अर्न्तगत हम उन समस्त क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जिनमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से धन की संलग्नता होती है जैसे रोटी, कपड़े, मकान की व्यवस्था आदि। अनार्थिक क्रियाओं के अन्तर्गत पूजा-पाठ, व अन्य सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है।जब हम किसी प्रकार का व्यवसाय करते हैं अथवा उद्योग लगाते हैं अथवा फिर कतिपय तकनीकी दक्षता प्राप्त करके किसी पेशे को अपनाते हैं तो हमें सर्वप्रथम वित्त धन की आवश्यकता पड़ती है जिसे हम पूँजी कहते हैं।
वित्तीय प्रबन्धन के दक्ष एवं प्रभावी प्रबन्धन है ताकि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। वित्त प्रबन्धन का कार्य संगठन के सबसे ऊपरी प्रबन्धकों का विशिष्ट कार्य है।मनुष्य द्वारा अपने जीवन काल में प्रायः दो प्रकार की क्रियाएं सम्पादित की जाती है - आर्थिक क्रियायें तथा अनार्थिक क्रियाएं।आर्थिक क्रियाओं के अर्न्तगत हम उन समस्त क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जिनमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से धन की संलग्नता होती है जैसे रोटी, कपड़े, मकान की व्यवस्था आदि। अनार्थिक क्रियाओं के अन्तर्गत पूजा-पाठ, व अन्य सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है।जब हम किसी प्रकार का व्यवसाय करते हैं अथवा उद्योग लगाते हैं अथवा फिर कतिपय तकनीकी दक्षता प्राप्त करके किसी पेशे को अपनाते हैं तो हमें सर्वप्रथम वित्त धन की आवश्यकता पड़ती है जिसे हम पूँजी कहते हैं।जिस प्रकार किसी मशीन को चलाने हेतु ऊर्जा के रूप में तेल, गैस या बिजली की आवश्यकता होती है उसी प्रकार किसी भी आर्थिक संगठन के संचालन हेतु वित्त की आवश्यकता होती है। अतः वित्त जैसे अमूल्य तत्व का प्रबन्ध ही वित्तीय प्रबन्धन कहलाता है। व्यवसाय के लिये कितनी मात्रा में धन की आवश्यकता होगी, वह धन कहॉं से प्राप्त होगा और उपयोग संगठन में किस रूप में किया जायेगा, वित्तीय प्रबन्धक को इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने पड़ते हैं। व्यवसाय का उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जन करना होता है जो दो प्रकार से किया जा सकता है।
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