(5) अचानक कहीं गिरी हुई ईंटों और व्यवस्था से लगा कर रखी
गई ईंटों के उदाहरण का सहारा लेकर ईश्वर की सत्ता को
सिद्ध करो।
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ईश्वर क्या है ? उसकी सत्ता, इच्छा और क्रिया का उद्देश्य क्या है ? इस सर्न्दभ में विभिन्न धर्म और दर्शन अपने-अपने ढंग से व्याख्या, विवेचन करते रहते हैं। इनमें बहुत कुछ साम्य होते हुए भी काफी अन्तर और मतभेद विद्यमान है। इन मतभेदों का सही रुप से निरुपण न होने देने में हठवादिता ही प्रधान कारण रही है। यदि पूर्ण मान्यताओं को ही सब कुछ न मान लिया गया होता और विश्व व्यवस्था के अन्यान्य पक्षो की तरह इस सर्न्दभ में भी अधिक कचन्तन का द्वार खुल रखा गया हो तो उस सत्ता की महत्ता से सभी लाभाविन्त होते। जबकि आज ईश्वर का उपयोग अपने सही गलत पक्षों का समर्थन करने और सहयोग देने भर के लिए किया जाता है। इस विपन्नता के रहते, ईश्वर के सम्बन्ध में भ्रान्तियाँ भी बनी रहेंगी और उसकी सत्ता और पवित्रता को विशिष्ट स्वार्थों के पक्ष में किया जाता रहेगा। ऐसी दशा में विज्ञजनों के मन में यह असमंजस बना ही रहेगा कि आस्तिकता के क्षेत्र में ऐसी अराजकता के रहते उसकी उपयोगिता स्वीकार की जाय या न की जाय ?
ईश्वर विश्वास का अर्थ है उत्कृष्टता के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाला साहस। दूसरे शब्दों में इसे आत्मबल भी कह सकते हैं। सच्चे ईश्वर विश्वासी को आत्मबल सम्पन्न होना ही चाहिए। ऐसे व्यक्ति में ऐसा आत्मबल होगा वह न तो अनीति के साकने झुकता है और प्रलोभन से ग्रसित होकर कुछ ऐसा काम करता है जिससे आदर्शवादिता पर-मानवी गरिमा पर आँच आती है। ईश्वर विश्वास की गहराई इसी नीति निष्ठा की कसौटी पर सदा कसी जाती और खरी सिद्ध होती रही है।
दुनिया के इतिहास में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिलते है, जिनमें अकेला व्यक्ति किसी समय बालक जैसा छोटा व्यक्ति भी किसी की मदद के बिना जबरदस्त शक्तियों का निडरता और दृढता से मुकाबला करने के लिये खड़ा होता है। इन शक्तियों क सामने थोड़ा झुक जाने से जीवन बच सकता हो तथा लाभ भी हो सकता हो, तो भी वह झुकने की अपेक्षा टूटना या नष्ट हो जाना अधिक पसन्द करता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में ऐसी किस वस्तु का अनुभव होता है जो इसे इतना बल देती है ? प्रह्नाद ऐसी किस वस्तु का अपने हृदय में अनुभव करता था, जिसके बल पर वह अपने पिता की कठोर यातनाओं की अवलेहना कर सका। या सुधन्वा तेल में भुने जाने की, गुरुगोविन्दसिंह के छोटे-छोटे पुत्र दीवाल में जीवित चुने जाने की और रोम का तरुण जलती हुई मशाल में अपना हाथ रख देने की यातना किस बल पर सन्तोषपूर्वक सहन कर सके थे ?
परन्तु यह एक ऐसा अनुभव है, जिसके कारण उस मनुष्य का यह विश्वास होता है कि उसमें कोई ऐसी शक्तिशाली प्रेरणा काम कर रही है, जो दुनिया की दूसरी सब शक्तियों से अधिक बलवान है, जो उसके शरीर और प्राणों की अपेक्षा उसके अधिक समीप है।
और धर्ममत (ग्लीजन, चर्च) सब सत्ताधारियों द्वारा अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिये निर्मित कपोल कल्पित माया है। हमारे देश के अनेक व्यक्तियों ने भी उस विचार को जैस-तैसे अपना लिया है और भिन्न-भिन्न प्रकार से वे उसे हमारे साहित्य में फैला रहे है।
परन्तु वे द्त प्रकाशित अर्थात्- (रोवील्ड) एवं अनुभूत-(रीयलाइज्ड) धर्ममताअं में अन्तर स्थापित करने में असफल रहे है। यहूदी, ईसाई, मुस्लिम आदि किसी विशेष व्यक्ति द्वारा स्थापित अर्थात् पौरुषेय-रीवील्ड धर्म है, हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि किसी विशेष व्यक्ति द्वारा स्थापित न किये हुए अर्थात् अपौरुषेय धर्म रीयलाइज्ड हैं।
इन दोने में बड़ा अन्तर है। वह अन्तर यह है कि द्त प्रकाशित धर्ममतों में ईश्वर को आकाश के पार और निराकार होते हुए भी बुद्धि तथा भीवनायुक्त एक तत्व विशेष माना गया है। उसने जिसे जैसा चाहा वैसा बनाया है। उसमें उस वाणी की इच्छा-अनिच्छा का कोई सम्बन्ध नहीं है। बाद में मनुष्य को यह धर्म समझाया गया है कि वह ईश्वर सर्वत्र न्यायी और दयावान है। इसलिये उसने जो कुछ किया होगा, वह ठीक ही किया होगा। उनके द्वारा-पैगम्बरों द्वारा बाँधी गई सामाजिक रुढियाँ, प्रणालियाँ और नियम मिलकर एक-एक धर्ममत (निलीजन) हो गये हैं।
वास्तव में हमारे देश के किसी भी धर्ममत या उसके किसी भी पन्थ में ईश्वर स्वरुप, समाज धर्म तथा विधिधर्म की तात्विक नींव उपरोक्त नींव से बिल्कुल भिन्न प्रकार की है। अद्वेत-सेश्वर-जैन, द्वैत-निरीश्वर-बौद्ध, विशिष्टद्वैत-वैदिक। चाहे जिस मत का मनुष्य हो, हिन्दू धर्म विचार में ईश्वर को सृष्टि काक कुम्हार जैसा कर्त्ता नहीं समझा गया है।
हिन्दू धर्म में ईश्वर के साथ एक दूसरी शक्ति को भी महत्ता दी गयी ही। इसे हम ‘कर्म’ के नाम से पहचानते है। न तो ईश्वर एक स्वेच्छाचारी सर्वाधिकारी है, न कर्म ही सम्पूर्णतया स्वाधीन है। इसी कारण ईश्वर को केवल कर्मफल प्रदाता कहते है अथवा साक्षी मात्र और अकर्त्ता भी कहते है।
इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दुओं के विचार से हमारे सुख-दुखः की मुख्य जवाबदारी कर्म की मानी गई है, न कि ईश्वर की।
सृष्टि के सब प्राणी और पदार्थ शरीर के अवयवों की तरह एक दूसरे से सम्बन्धित है तथा अनादि भूतकाल से उनका सम्बन्ध है। हिन्दू जनता की भावना में ईश्वर या तो केवल साक्षी रुप, अकर्त्ता और कर्म फल प्रदाता है अथवा उसका कर्तृत्व किसी को पीड़ा पहुँचाने पीड़ीत रखने या पाप अथवा नरक में ढकेलने के लिए प्रवृत नहीं होता, परन्तु जो उसकी अनन्य शरण लेता है उसके कष्ट और पापों को हटाने और उसके ज्ञान, बल, बुद्धि अथवा उसकी सात्विक सम्पत्ति बढाने के लिये ही प्रवृत होता है। मनुष्य की शवुक वृत्तियों को जाग्रत और बलबती करने वाले उसके गूढ तत्व का ही नाम ईश्वर है।
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वेदाध्ययन करके हम जान पाते हैं कि हमारा इष्टदेव व प्राप्तव्य ईश्वर ही है। इसके लिये हमें वेदविहित कर्मों को करना है। हमें वेदों में निषिद्ध कर्मों का त्याग करना है। असत्याचरण, परनिन्दा, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, मत-मतान्तरों की हानिकारक बातों से पृथक रहना है।