5. 'मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै' कबीरदास कि इस उक्ति से
आपने क्या समझा ?
STT.
क्या होता था?
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प्रश्न: पाठ की तीसरी साखी-जिसकी एक पंक्ति हैं ‘मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं’ के द्वारा कबीर क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर: कबीरदास जी इस पंक्ति के माध्यम से हमें यह बताना चाहते है कि हमलोग ईश्वर की भक्ति करने के लिए एक माला को अपने गर्दन मे धारण कर लेते है और जब भी हमें ईश्वर की याद आती है तो उस माले को गिन-गिन कर प्रभु का नाम जपते है और जब हम माले को गिनकर ईश्वर की भक्ति मे लिन होना चाहते है तो हमारा मन इधर उधर भटकने लगता है, हम अपने मन को प्रभु के भक्ति मे समर्पित नहीं कर पाते है इसीलिए कबीरदास अपने इस दोहे के माध्यम से हमें कहते है ऐसी भक्ति हमे नहीं करनी चाहिये जिसमें हमारा मन एकाग्रचित ना हो, इससे पता लगता है कि हम भगवान की भक्ति नहीं ढोंग कर रहे है।
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इस मुहावरे में कबीरदास ऐसा कहना चाहते हैं, जब हम भगवान का माला पहन रहे हैं तो हमें समस्या से मुक्ति मिल रही है। जब हम समस्या में होते हैं तो माल्या की पंखुड़ियां आजादी पाने में मदद करती हैं.इसलिये हर समस्या का हल है। हमें किसी समस्या से नहीं डरना चाहिए।