Hindi, asked by rajputankitsingh264, 6 months ago

5.
निम्नलिखित अवतरण का संक्षेपण कीजिए :200 words me
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी धर्मों में एक ही प्रकार की उदारता है । तो फिर मनुष्य धर्म के
नाम पर इतना उन्मत्त क्यों हो गया है ? मूल बा
त यह है कि इन झगड़ों का कारण धर्म नहीं है, इनके
मूल में स्वार्थ है।​

Answers

Answered by devjeet63
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Answer:

किसी निर्धारित विषय जैसे सूत्र-वाक्य, उक्ति या विवेच्य-बिन्दु को उदाहरण, तर्क आदि से पुष्ट करते हुए प्रवाहमयी, सहज अभिव्यक्ति-शैली में मौलिक, सारगर्भित विस्तार देना पल्लवन (expansion) कहलाता है। इसे विस्तारण, भाव-विस्तारण, भाव-पल्लवन आदि भी कहा जाता है।

सूत्र रूप में लिखी या कही गई बात के गर्भ में भाव और विचारों का एक पुंज छिपा होता है। विद्वान् जन एक पंक्‍त‌ि पर घंटों बोल लेते हैं और कई बार तो एक पूरी पुस्तक ही रच डालते हैं। यही कला 'पल्लवन' कहलाती है।

पल्लवन के कुछ सामान्य नियम (पल्लवन की प्रक्रिया )-

(1) पल्लवन के लिए मूल अवतरण के वाक्य, सूक्ति, लोकोक्ति अथवा कहावत को ध्यानपूर्वक पढ़िए, ताकि मूल के सम्पूर्ण भाव अच्छी तरह समझ में आ जायँ।

(2) मूल विचार अथवा भाव के नीचे दबे अन्य सहायक विचारों को समझने की चेष्टा कीजिए।

(3) मूल और गौण विचारों को समझ लेने के बाद एक-एक कर सभी निहित विचारों को एक-एक अनुच्छेद में लिखना आरम्भ कीजिए, ताकि कोई भी भाव अथवा विचार छूटने न पाय।

(4) अर्थ अथवा विचार का विस्तार करते समय उसकी पुष्टि में जहाँ-तहाँ ऊपर से कुछ उदाहरण और तथ्य भी दिये जा सकते हैं।

(5) भाव और भाषा की अभिव्यक्ति में पूरी स्पष्टता, मौलिकता और सरलता होनी चाहिए। वाक्य छोटे-छोटे और भाषा अत्यन्त सरल होनी चाहिए। अलंकृत भाषा लिखने की चेष्टा न करना ही श्रेयस्कर है।

(6) पल्लवन के लेखन में अप्रासंगिक बातों का अनावश्यक विस्तार या उल्लेख बिलकुल नहीं होना चाहिए।

(7) पल्लवन में लेखक को मूल तथा गौण भाव या विचार की टीका-टिप्पणी और आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसमें मूल लेखक के मनोभावों का ही विस्तार और विश्लेषण होना चाहिए।

(8) पल्लवन की रचना हर हालत में अन्यपुरुष में होनी चाहिए।

(9) पल्लवन व्यासशैली की होनी चाहिए, समासशैली की नहीं। अतः इसमें बातों को विस्तार से लिखने का अभ्यास किया जाना चाहिए.

(10). पल्लवन में निबंधात्मकता का गुण होता है..

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Answered by niteshrajputs995
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Answer:

धर्म एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अनुपम विषय है, जो मनुष्य के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

Explanation:

धर्म एक तरह से मानवता के उत्कृष्टतम विकास के लिए एक आधार है। विभिन्न धर्मों में एक समान उदारता और मानवता का भाव है, जो सभी लोगों को समान तरीके से समझाता है कि हर व्यक्ति का धर्मीय आदर्श और उपदेशों का मूल्य समान होता है।

फिर भी, मानव समाज में धर्म के नाम पर कई विवाद और असमंजस मौजूद हैं। इसका मूल कारण यह है कि धर्म के नाम पर स्वार्थ और अधोरूप मुद्दों को बढ़ावा दिया जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए धर्म का उपयोग करता है, तो उससे समाज में असंतोष होता है। वास्तव में, धर्म का मूल उद्देश्य सभी लोगों की जीवन में शांति, समानता, और सौहार्द को बढ़ावा देना है।

इसलिए, हम सभी को यह समझना चाहिए कि धर्म का नाम स्वार्थ और अधोरूप मुद्दों के लिए नहीं है

आपकी बात सही है कि हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी धर्मों में एक ही प्रकार की उदारता होती है। धर्म का मूल उद्देश्य मनुष्य को सही मार्ग पर लाना होता है जो उसे एक सफल और सुखी जीवन जीने में मदद करता है।

लेकिन, इन झगड़ों का कारण धर्म नहीं है, बल्कि इसमें स्वार्थ होता है। मनुष्य अपनी अलग-अलग समाज, जाति, धर्म और आधार पर अपने अंदर की अधिकतम स्वार्थ को पूरा करना चाहता है। इस स्वार्थ के चक्र में, मनुष्य अपने धर्म को उपयोग करता है ताकि वह दूसरों को अपनी सोच का विरोध करें और अपने स्वार्थ के लिए लड़ाई लड़ सकें।

धर्म एक मार्गदर्शक होता है जो मनुष्य को सही जीवन जीने का रास्ता बताता है, लेकिन यदि मनुष्य इसे स्वार्थ के लिए उपयोग करें, तो उसमें उलझन हो जाती है। इसलिए हमें अपने धर्म को सही मायने में समझना चाहिए और दूसरों के साथ शांति और समझौते की तलाश करनी चाहिए।

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