Political Science, asked by riyakushwah2809, 3 months ago

5. न्यायिक सक्रियता पर एक निबन्ध लिखिये। 250 words

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Answered by fulwanichandni5
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Explanation:

न्यायिक सक्रियता के तहत जनहित से जुड़े मामलों का क्षेत्र । प्रक्रिया लक्ष्य आदि व्यक्तिगत हित विवादों से बिल्कुल भिन्न है । यह सामाजिक न्याय को स्थापित करने और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार रूप देने का एक प्रभावी उपाय है ।

ऐसे तमाम मामलों में न्यायालय ने सज्ञान लिया और पीड़ित पक्ष को उसका हक दिलाया जो समाज के दबे-कुचले वर्ग से जुड़े थे । इनमें 1982 में एशियाड वर्कर्स का मामला, 1982 का बंधुआ मुक्ति मोर्चा केस, जैसे कई विवादों में उच्चतम न्यायालय ने कार्यवाही करते हुए प्रभावित लोगों को आवश्यक राहते देने का प्रयास किया है ।

न्यायिक सक्रियता को उत्प्रेरित करने में न्यायालय द्वारा ‘जीवन’ के अधिकार की व्याख्या संबंधी फैसले ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए कहा कि ‘प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता’ में जीविकोपार्जन का अधिकार भी शामिल है ।

‘जीवन’ का तात्पर्य सिर्फ भौतिक अस्तित्व नहीं बल्कि एक सम्मानपूर्ण जीवन के साथ आधार-भूत जरूरतों पर अधिकार भी शामिल है । न्यायालय के इस फैसले से चिकित्सा सहायता और स्वास्थ्य अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता मिली ।

साथ ही उच्चतम न्यायालय ने यह भी घोषित किया कि अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन के अधिकार में संक्रमण जल और वायु भी शामिल है, ताकि व्यक्ति जीवन का पूरा सुख उठा सके । न्यायालय ने इस संबंध में समय-समय पर ऐसे कई आदेश दिए जिससे प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को या तो बद करना पड़ा या उन्होंने इसे रोकने के लिए कोई व्यवस्था की ।

न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र के अतिक्रमण की आलोचना भी अक्सर हुई है । आलोचकों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के नाम पर न्यायपालिका, कार्यपालिका की शक्तियों को हडप रही है । इस तरह का हस्तक्षेप शासन के तीनों अंगों के बीच संतुलन को समाप्त कर देगा जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग के स्थान पर निरंतर टकराव और विरोध की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी ।

खासतौर पर आलोचकों को सबसे ज्यादा आपत्ति न्यायपालिका द्वारा विधान मण्डल के कार्यों में हस्तक्षेप से है । इनके अनुसार विधान मण्डल जो जन साधारण का प्रतिनिधित्व करता है, की अपेक्षा न्यायालय के कुछ एक सदस्य जनहित को ज्यादा अच्छी तरह से नहीं समझ सकते है ।

जनहित विवादों के नाम पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप दैनिक प्रशासन में निरन्तर बढ़ता जा रहा है और स्थिति यह होती जा रही है कि इस तरह के मामले उपाहासास्पद बन कर रह गये हैं । हाल के दिनों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जिनमें न्यायालय की प्रतिष्ठा को धक्का लगा ।

चाहे वह न्यायालय द्वारा पार्किंग स्थल के बारे में सरकार को निर्देश जारी करना हो या फिर किसी मरीज की नि:शुल्क चिकित्सा की व्यवस्था करनी हो । ये मामले ऐसे नहीं हो सकते, जिनमें न्यायालय रोज-रोज हस्तक्षेप करे । हाल के दिनों में जिस प्रकार न्यायालय विधानमंडलों की कार्यप्रणाली मैं हस्तक्षेप कर रहा है वह भी न्यायिक सक्रियता के ऋणात्मक पक्ष को ही दर्शाता है ।

यहाँ तक कि झारखंड विधानसभा में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को बहुमत साबित करने की ‘डेडलाइन’ जारी करने पर तो लोकसभाध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी ने भी खुलकर आलोचना की और इसे विधायिका के कार्य में अनावश्यक हस्तक्षेप बताया ।

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव का एक प्रसंग तब सामने आया, जब दिल्ली में बिजली संकट के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि अदालत सुपर प्लानिंग कमीशन की तरह काम नहीं कर सकती ।

इसके पहले वन विभाग की विशेषज्ञ समिति के सदस्य नियुक्त करने के अधिकार को लेकर भी लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों के बीच टकराव दिखाई दिया था । इसके अलावा लगातार विधायिका में भी अदालतों की अतिसक्रियता को लेकर असहमति दिखाई दे रही है ।

लोकसभा अध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी और प्रधानमंत्री, डॉ. मनमोहन सिंह भी न्यायपालिका की भूमिका पर नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं । दिख रहा है कि पिछले लंबे वक्त से अदालतें उन क्षेत्रों में दखल दे रही है, जो आमतौर कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र माने जाते है ।

संविधान की नवी अनुसूची और पिछडों के आरक्षण के मुद्दे पर अदालत के रवैए से विधायिका नाखुश है । लगता यही है कि लोकतंत्र को इन स्तंभों के बीच यह टकराव पूरी तरह खत्म नहीं होगा । ऐसे में सवाल यही उठता है आखिरकार इस समस्या का अंत क्या है?

हमारे संविधान में तीनों स्तंभों के काम स्पष्टतया रेखांकित किए गए हैं, फिर भी व्यावहारिक धरातल पर कहीं-न-कहीं कुछ धुँधले इलाके तो हमेशा ही बने रहेंगे, जिनकी व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जाएगी । धीरे-धीरे नई परिस्थितियों के संदर्भ में कुछ चीजे ज्यादा साफ होंगी ।

फिर भी पूरी तरह यांत्रिक ढंग से कार्य विभाजन शायद कभी संभव नहीं होगा । ऐसे में दो बाते महत्वपूर्ण हैं एक, इस टकराव का रचनात्मक पक्ष देखा जाए और इससे एक ज्यादा बेहतर लोकतंत्र के बनने के रास्ते ढूँढे जाए । अगर यह टकराव सीमा में रहे तो निश्चय ही सबके लिए ज्यादा कार्यकुशल और चुस्त बने रहने की गुंजाइश बनाता है ।

दूसरी बात यह है, कि हमारे लोकतंत्र के सभी स्तंभ कहीं-न-कहीं जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं । ऐसे में अक्सर जनता दूसरे स्तंभ की शरण लेती है । जैसे कार्यपालिका से असंतुष्ट होकर लोग जनप्रतिनिधियों के पास भी जाते है और अदालतों के पास भी ।

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