5-पाँच अनुच्छेद सुलेख कीजिये।
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की परिभाषा किसी एक भाव या विचार को व्यक्त करने के लिए लिखे गये सम्बद्ध और लघु वाक्य-समूह को अनुच्छेद-लेखन कहते हैं। दूसरे शब्दों में- किसी घटना, दृश्य अथवा विषय को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित ढंग से जिस लेखन-शैली में प्रस्तुत किया जाता है, उसे अनुच्छेद-लेखन कहते हैं।
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1. सत्संग से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं. यदि कोई मनुष्य इस जीवन में दुखी रहता है तो कम से कम कुछ समय के लिए श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में वह अपने सांसारिक दुखों का विस्मरण कर देता है. महापुरुषों के उपदेश सदैव सुख शांति प्रदान करते हैं. दुख के समय मनुष्य जिनका स्मरण करके धीरज प्राप्त करता है. सत्संग में लीन रहने वाले मनुष्य को दुखों का भय नहीं रहता है. वह अपने दिल समझता है, जिससे दुखों का कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता. सत्संग के प्रभाव से धैर्य लाभ होता है जिससे मन में क्षमा की शक्ति स्वयं ही आ जाती है. क्षमा सभी प्रकार के दुर्गुणों का विनाश कर देती है और मन को शांति व संतोष प्रदान करती है. इसी प्रकार के अन्य अनेक लाभ सत्संग द्वारा प्राप्त होते हैं. संगति का प्रभाव मन पर अनिवार्य रूप से पड़ता है अतः सत्संग में रहने वाला मनुष्य सदाचारी होता है. हमें भी सदस्य सज्जन पुरुषों की संगति करनी चाहिए और दुर्जन मनुष्य उसे दूर रहना चाहिए. दर्जनों के संग रहकर उत्कृष्ट गुणों वाला मनुष्य भी विनाश की ओर चला जाता है.
2. किसी शहर में एक नट मण्डली आई हुई थी. लोग भीड़ लगाकर नट के करतब देख रहे थे. भीड़ में दो चोर भी थे. उन्होंने देखा कि नट एक पतली सी रस्सी पर बड़े ही आराम से बिना किसी सहायता के चल रहा है. दोनों चोरो ने सोचा कि यदि यह नट हमारे साथ आ जाये तो चोरी करने में बड़ी सहायता मिलेगी. यह सोचकर दोनों चोरों ने नट से बात की. नट ने उन्हें मना कर दिया. चोर उसे बाँधकर अपने साथ ले गए, और रात में एक सेठ की हवेली के नीचे ले जाकर चाकू दिखाते हुए कहा “इस मुंडेर पर चलकर तुम अंदर जाकर दरवाजा खोलो”. मुंडेर इतनी पतली थी कि उस पर कोई इंसान तो क्या कोई छोटा जानवर भी नहीं चल सकता था. चोर उस पर चढ़ा और एक कदम चलकर धड़ाम से नीचे गिर पड़ा. दोनों चोर चिल्लाते हुए बोले “तमाशा दिखाते हुए तो तुम पतली सी रस्सी पर चल रहे थे, यहाँ कैसे गिर पड़े? ” चोर मासूमियत से बोला “ढोल बजाओ ढोल, क्योंकि मैं ढोल बजने पर ही रस्सी पर आराम से चल पाता हूँ. ” नट क़ी बात सुनकर चोरों ने अपना सिर पीट लिया.
3. नजर उठाकर जहाँ भी देखें आपको हर इंसान दुःख, अवसाद, तृष्णा, घृणा, नफरत, ईर्ष्या आदि जैसे दुर्गुणों से त्रस्त दिखाई देगा. प्रत्येक इंसान तनावग्रस्त है. जीवन शैली इतनी नीरस हो चुकी है कि उमंग-उल्लास तो नदारद हो गए हैं जीवन से. भौतिक सुखों को तलाशते हुए व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों को विस्मृत कर चुका है. अनंत सुखों का स्वामी होकर भी व्यक्ति दरिद्र बना हुआ है, वह निरंतर दुःख और तनाव से पीड़ित है. वह कितने ही भौतिक संसाधनों का अम्बार लगा ले, कभी भी सुखी नहीं हो सकता जब तक वह अपने भीतर सुख नहीं ढूंढेगा तब तक दुखों से कैसे मुक्ति पायेगा? हमें सुख की प्राप्ति के लिए पीछे मुड़कर अपनी समृद्ध परम्परा को देखना होगा, अपनाना होगा अपनी प्राचीन पद्धतियों को, जिनसे हमें एक सशक्त मार्ग मिलेगा जिसे हम योग कहते हैं. हमारे भीतर अनंत शक्तियां छिपी हैं, आवश्यकता है उन्हें जगाने की. योग ही एक ऐसा उत्तम एवं सरल मार्ग है जिसके द्वारा हम अपनी शक्तियों को जगाकर अनंत आनंद, शक्तियों एवं शांति को प्राप्त कर सकते हैं.
4. कहा जाता है कि यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का मुख सौंदर्य विहीन था. किन्तु उनके विचारों में अत्यंत प्रबल सुन्दरता थी अतः लोग उन्हें बहुत पसंद करते थे. एक बार वे अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे, तभी एक ज्योतिषी वहाँ आया वह सुकरात को जानता नहीं था. उसने सुकरात का चेहरा देखकर बताया कि तुम्हारे नथुनों की बनावट बता रही है कि तुममें क्रोध की भावना अत्यंत प्रबल है. यह सुनकर सुकरात के शिष्य नाराज होने, किन्तु सुकरात ने उन्हें रोक लिया. ज्योतिषी ने आगे बताया कि तुम्हारे सिर की आकृति तुम्हारे लालची होने का प्रमाण दे रही है, ठुठडी की बनावट से तुम सनकी और होठों से तुम देशद्रोह के लिए तत्पर प्रतीत होते हो. यह सुनकर सुकरात ने ज्योतिषी को पुरस्कार दिया. सुकरात के शिष्यों ने इसका कारण पूछा तो सुकरात ने स्पष्ट किया कि ये सारे दुर्गुण मुझमें हैं किन्तु ज्योतिषी मुझमें स्थित विवेक की शक्ति को न देख सका जिसके कारण मैं इन सभी दुर्गुणों को नियंत्रण में रखता हूँ. हर इंसान को अपने भीतर स्थित विवेक को जागृत कर सदैव दुर्गुणों को काबू में रखना चाहिए.
5. शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाती है. शिक्षा के बिना मनुष्य पशु के समान होता है. शिक्षित मनुष्य ही राष्ट्र की प्रगति में सक्रिय योगदान कर सकते हैं. वैसे तो मनुष्य की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है और उसकी प्रथम गुरु उसकी माँ होती है जो नवजात शिशु में संस्कारों को सिंचित करती रही है. जब तक बच्चा विद्यालय जाने के योग्य नहीं हो जाता परिवार में माँ के अतिरिक्त अन्य सदस्य भी उसके गुरु की भांति उसे शिक्षित करते रहते हैं. परिवार के बाद शिक्षा प्राप्त करने का सबसे अच्छा स्थान विद्यालय होता है. यहाँ आकर उसका सर्वांगीण विकास होता है. विद्यालय में पुस्तकीय ज्ञान के अलावा उसे नृत्य-संगीत एवं खेल-कूद आदि का भी प्रशिक्षण दिया जाता है. छात्रों द्वारा अपनी-अपनी रूचि के अनुसार खेलों का चयन किया जाता है. चुनी हुई गतिविधियों में दक्षता प्राप्त कने के लिए वे दिन-रात अथक परिश्रम करते हैं. विद्यालय के प्रशिक्षक भी उनमें जान डालने का कार्य करते हैं तभी ऐसे विद्यार्थी देश का नाम विश्व में स्वर्णाक्षरो में लिखवा देते हैं.