5. समाज पर सिनेगा का प्रभाव
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हिन्दी सिनेमा की शुरुआत राजा हरीश चंद्र पर 1913 मे बनी मूक फिल्म से हुई थी। शुरुआती दौर मे धार्मिक फिल्मे ही बनी। देश की जनता भी यही देखना चाहती थी। यही वजह है की उस समय नैतिकता और धर्म कर्म का भी बोल बाला था। फिर आगे ऐतिहासिक फिल्मे भी आने लगी और खूब सराही गयी। मुगले आजम ने नए कीर्तिमान स्थापित किए। क्योंकि जब हिन्दी सिनेमा बनाना शुरू हुआ था उस समय देश अंग्रेज़ों का गुलाम था इसलिए देश भक्ति की फिल्मे बनाना ख़तरे से खाली नहीं था। लेकिन आजादी के बाद देश भक्ति पर भी फिल्मे बनने लगी और इसमे मनोज कुमार का नाम सबसे ऊपर है जिन्हे भारत कुमार भी उपनाम दे दिया गया था। पिछले कुछ दशको मे तो बहुत सी देश भक्ति पर आधारित फिल्मे बनी और खूब चली भी।
उसके बाद आया सामाजिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों का दौर। यूँ तो यदा कदा समाज सुधारको और विचारको पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फिल्मे बनती रहती थी, पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था। पर दो आँखें बारह हाथ, जागृती, अछूत कन्या, बंदिनी जैसी फिल्मो का नायक या नायिका एक साधारण व्यक्ति था। इन सभी फिल्मों ने आमजनमानस की सोच मे बदलाव का काम भी किया।
अगला दौर था रोमांटिक फिल्मों का, पर एक बात ध्यान देने वाली है की इन फिल्मों मे भी कुछ न कुछ सामाजिक संदेश जरूर होता था। इस दौर ने देश की जनता के ऊपर, उनकी सोच मे बदलाव के लिए क्रांति कारी काम किया। जो बड़े बड़े विचारक, समाज सुधारक नहीं कर सके वह काम इन फिल्मों ने कर दिखाया। छूयाछूत, सामाजिक भेदभाव, जात पात के खिलाफ इन फिल्मों मे कोई न कोई संदेश जरूर छुपा होता था। इससे नौजवान बहुत प्रभावित भी हुआ और एक अलख से जागा दी इन फिल्मों ने। अब देखिए “कटी पतंग” एक रोमांटिक फिल्म थी, सुपर स्टार राजेश खन्ना जिनका रोमांटिक हीरो के रूप मे कोई जबाब नहीं था। पर कहानी का मूल विधवा विवाह ही था। ऐसी ही एक फिल्म मे राजेश खन्ना एक दलित युवती (पद्मिनी कोल्हापुरी) से प्यार करते हैं। इन फिल्मों ने समाज की रूढ़ियों को तोड़ने मे बड़ी भूमिका अदा की। नौजवान की सोच को बदला। अब समाज पर फिल्मों का इतना प्रभाव या यह कहने नौजवान पीढ़ी पर पड़ा की वह वही करने लगे जो फिल्मों मे होता है। मुझे याद आता है एक इसी प्रकार का किस्सा। एक फिल्म मे जैकी श्राफ मैकेनिक बने थे और एक अमीर लड़की जो अपनी कार ठीक कराने आती है, दोनों प्यार मे डूब जाते हैं। अब उन्ही दिनो की बात है, हमारे पड़ोस मे एक डाक्टर के घर के बाहर सड़क पर एक स्कूटर मैकेनिक अपनी दुकान लगा कर काम करता था और डाक्टर की बेटी अपना स्कूटर उससे ठीक करवाती थी, एक दिन दोनों घर छोड कर भाग गए। अगर आप 60 से 80 के दशक की फिल्मों को देखोगे तो पाओगे की फिल्म की अधिकतर नायिका साड़ी या सूट पहनती थी (एक आध अपवाद जैसे शर्मिला टैगोर ने एक फिल्म मे बिकनी पहनी थी) और यही आम महिलाए भी पहनती थी। उस समय खलनायिकाए ही स्कर्ट, स्लेक्स, और अंग प्रदर्शन करने वाले कपड़े पहनती थी। बाद की फिल्मों मे नायिकाओ ने यह भेद मिटा दिया। अब आप कपड़े देख कर नहीं पहचान सकते की यह नायिका है या खलनायिका। अब यही कपड़े आम महिलाएँ भी पहन रही है। कहने का अर्थ यह है की फिल्मे आम जन जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। आज की पीढ़ी भी नायक, नायिकाओं का फैशन मे अनुसरण कर रही हैं। यही नहीं जिस प्रकार से आजकल की फिल्मों की कहानी होती है, संदेश होते हैं उन्हे अपने विचारों मे सम्मिलित कर रही है।
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