Hindi, asked by Prachi678, 1 year ago

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Answered by Neeraj1818
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अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् |

अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||

अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |

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श्लोक 2 :

आलस्यं हि मनुष्याणां- शरीरस्थो महान् रिपुः |

नास्त्युद�¥- �यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||

अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |

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श्लोक 3 :

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्- |

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

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श्लोक 4 :

बलवानप्यश�¤- �्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |

श्रुतवानप�¤- ¿ मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो- जनः ||

अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |

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श्लोक 5 :

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं ,

मानोन्नति�¤- ‚ दिशति पापमपाकरोत- ि |

चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं ,

सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ||

अर्थात्: अà- ��्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है ,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है |(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती |

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