6. जातिवाद भारत में चुनाव की राजनीति को किस तरह प्रभावित करता है? स्पष्ट कीजिए।
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लोकसभा चुनावों के लिए मतदान लगभग पूरा हो गया है. बस 12 मई को अंतिम चरण का मतदान होना बाकी है. भारतीय जनता पार्टी का शुरू से दावा था कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा ही नहीं चल रही बल्कि सुनामी की याद दिलाने वाली शक्तिशाली लहर है जिसके कारण उसके नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए को कम से कम 300 सीटें तो मिल ही जाएंगी. लोकसभा के चुनावों में लहर केवल दो बार ही देखी गई है. इमरजेंसी समाप्त होने के बाद हुए चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस के विरोध में लहर उठी थी. इसका असर यह हुआ कि जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाएं टूट गईं और कांग्रेस का उत्तर भारत से सफाया हो गया.
krishnpriya ❤️
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सदियों से राजनीति में जाति का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो राजनीतिक पार्टियों ने जाति को एक मुद्दा बनाकर अपने-अपने हित साधे हैं। देश में 1931 जनगणना से सम्बन्धित अँग्रेज कमिश्नर मिस्टर हट्ट्न ने लिखा है, सही –सही जाति आधारित जनगणना असम्भव है।
हमारे विशाल देश मे लगभग छ हजार जातियां होगीं उनकी भी उप जातियां होगीं जिनकी संख्या हजारों में होगी। अत; उनकी वैज्ञानिक जन गणना सम्भव नही है।वर्तमान चुनाव 2012 में भी जाति एक अहम मुद्दा बनकर उभरा है, जिसे सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपने दलों में टिकट बाँटते समय प्रत्याशी तय करने में ध्यान रक्खा है। क्षेत्रवाद ने जातिवाद को बढाने में अहम भूमिका निभाई , जिसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ और विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने जातीय समीकरण के आधार पर जाति विशेष की हितैषी बनकर भारतीय राजनीति मे अपनी पहचान बनाने मे न केवल कामयाब हुई वरन सत्ता भी प्राप्त करके राष्ट्रीय पार्टियों को भी जाति वाद के फार्मूले पर राजनीति करने के लिये आकर्षित किया। राजनीति के तहत देश में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कद्दावर नेता तक देश मे जातीय जनगणना को अपना समर्थन दे रहे थे। शायद उन्हे पता नही है कि ऐसा कर वह देश में जातिवाद की अमरबेल बना देना चाहते हैं ।
देश की राष्ट्रीय एकता को खन्डित करने के लिए अंग्रेजों ने 1871 में जो जातीय जनगणना का विष रूपी अंकुर हमारी राजनैतिक धरा पर बोया था । उसे हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के लिये राजनैतिक तुष्टीकरण के खाद पानी से सिंचित करती आ रही है। यही कारण है जब एक आम मतदाता चुनाव मे मत डालने निकलता है तो उसके मन मस्तिष्क पर उस प्रत्याशी की छवि और चरित्र से ज्यादा उसकी जाति भारी पड़ जाती है।