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रुपए-पैसे को तुच्छ वस्तु मानने वाले लोग कैसे होते हैं?
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Answer: आर्थिक छुआछूत’ एक अछूता जुमला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाए हैं। वे इस विधा में कुशल हैं। वे जन-धन योजना को तन-मन से लाए हैं। मूल में बचत है। माध्यम बैंक है। लक्ष्य पैसा है। हर व्यक्ति के पास ग़रीबी से लड़ने का पैसा। परिवार पालने का पैसा। बच्चों को आगे बढ़ाने का पैसा।
संसार में जितना जटिल मसला पैसे का है, उतना किसी भी चल-अचल वस्तु-व्यक्ति या स्थान का नहीं। किसी भी और विषय पर इतने विरोधाभासी वक्तव्य नहीं हैं, जितने पैसों पर। जितने लोग पैसों को अच्छा मानते हैं, ठीक उतने ही लोग इसे बुरा। यही हाल इसे कमाने वालों को लेकर है। विश्व ठीक दो भागों में बंटा हुआ है। पहला कहता है पैसा कुछ ही कमा सकते हैं। दूसरा मानता है पैसा सभी कमा सकते हैं।
‘आर्थिक छुआछूत’ का संबंध पहले वाले से है। ‘जन-धन’ का संबंध दूसरे वाले से।
पैसों को लेकर हम साधारण लोग क्या, दिग्गज अर्थशास्त्री तक हैरान थे/हैं/रहेंगे। विश्वास नहीं होता कि कोई पैसों की परिभाषा ही नहीं लिख पाया। ‘मनी इज़ व्हॉट मनी डज़’। पैसा वह जो पैसों का काम करे। यह परिभाषा है। स्पष्ट है वे सब मिलाकर भी इसे परिभाषित न कर सके। न जाने कितनी कीमत चुकानी पड़ी होगी। पैसों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह अनंत है। जितना हो कम है। जितना बढ़े, और बढ़ाने की इच्छा प्रबल करता है। समूचे संसार में बारहों महीने-बत्तीसों घड़ी-दसों दिशाओं में मनुष्य मन से, वचन से और कर्म से पैसा कमाने में जुटा है। आवश्यकता है। अनिवार्य है।
किन्तु दूसरी ओर? संसार के सर्वाधिक धनी बिल गेट्स और उनकी पत्नी अपना धन परोपकार में सश्रम-सहर्ष लगा रहे हैं। सुदूर अफ्रीकी जंगलों में ग़रीबी, भूख और बीमारी से जूझते बच्चों के बीच जाकर। संसार के दूसरे क्रम के धनी वॉरेन बुफे ने अपनी 99% संपत्ति गेट्स फाउंडेशन को दान कर दी। अब दोनों मिलकर 600 बिलियन डॉलर चैलेंज नाम से विश्व के धनिकों से अपने जीवनकाल में 50 से 99% संपत्ति परोपकार यानी गरीबों की सेहत और शिक्षा के लिए दान करने का संकल्प ले संघर्षरत हैं! और, धनिक दे भी रहे हैं।
जब पैसा कमा रहे थे - तो और, और कमाने की दौड़ में थे। दूसरों को कमाने से रोक रहे थे। अब दे रहे हैं। क्यों? क्योंकि जो सबसे ज्यादा पाता है, वह धनी नहीं है। जो सबसे ज्यादा देता है, वह धनी है।
किन्तु निर्धन का क्या?
कहा गया है कि जिनके पास धन नहीं है, वह निर्धन नहीं है। जो धन के पीछे भागता है, वह निर्धन है। खाली पेट में न कोई निर्धनता है, न कोई परेशानी। खाली दिल सबसे बड़ी निर्धनता है। किन्तु जीवन चलाने के लिए पैसा तो चाहिए ही। निश्चित। ध्यान यही रखना है कि पैसा हाथ में रहे। दिल में नहीं। महान् चित्रकार पिकासो की बात सुनिए : ‘मैं एक ग़रीब की जिंदगी जीना चाहता हूं। ऐसे ग़रीब की, जिसके पास भारी दौलत हो!’ क्या उम्र के साथ, अनुभव के साथ उन लोगों को पता चला कि पैसा तो कमाना नहीं, लौटाना चाहिए?
कह नहीं सकते। खून जमा देने वाले कटाक्ष करने की बुद्धि - कोल्ड ब्लडेड विट् - के लिए प्रख्यात आयरिश साहित्यकार ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था कि वे छोटे थे तो सोचते थे पैसे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। बड़ी उम्र में जाकर पता चला… वास्तव में यही सच है! पैसा सुविधा देता है। पैसा सुख नहीं दे सकता।
कभी किसी पवित्र उद्देश्य को पूरा करने से आतंरिक मन को सबसे बड़ा सुख मिलता है। किन्तु उद्देश्य चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, कुछ न कुछ तो खर्च करना ही होगा। प्रेमचंद की स्कूल में नौकरी थी। महात्मा गांधी से प्रभावित हो, आंदोलन में कूदने से छोड़ दी। फिर कहानियों से अलख जगाया। टूटी खटिया पर बैठ, विश्व साहित्य रच डाला। किन्तु महान् लोगों की जीवनगाथा पढ़ने के लिए एक मामूली दुकान पर बैठना पड़ा। खर्च जो था पढ़ने में।
हर चीज़ पेट से जुड़ी है। कोई मात्र संगीत नहीं सीख सकता। कोई बच्चा केवल चित्रकार बनना चाहे, तो मना है। कला-संस्कृति-साहित्य तो दूर की बात, यदि किसी को समाज सेवा करनी है तो लाख संघर्ष और सच्चाई के - लोग, नातेदार, हितैषी, विरोधी कोई करने नहीं देंगे। समाज सेवा करोगे तो खर्च कैसे पूरे होंगे? यह यक्ष प्रश्न उठेगा। युधिष्ठिर तो हम होते नहीं जो उत्तर दे सकें।
स्थिति विचित्र है। एक बार एक परिवार मुझसे मिलने आया। इसलिए कि मेरे साथ काम कर रहा एक उत्साही-सुदर्शन-मेधावी रिपोर्टर उन्हें अपनी बेटी के लिए उचित वर के रूप में सुझाया गया था। ‘क्या करता है?’ मैंने बताया कि अच्छे, भीतर घुसकर पठनीय समाचार रिपोर्ट करता है। किन्तु वे पूछते रहे : यह तो ठीक है, लेकिन करता क्या है? पत्रकारिता को ‘ठीक’ कहकर, ‘काम’ न मानकर खारिज किया गया! किन्तु जैसे ही मैंने तनख्वाह बताई, उन्होंने तपाक से हामी भर दी। काम का काम ही क्या? वर्जीनिया वूल्फ ने ‘कमरे’ की बात उठाई थी। उन्होंने कहा था कि यदि कोई युवती आत्मनिर्भर रहकर कुछ बनना या मन का कुछ करना चाहती है तो इतने पैसे होने ही चाहिए कि वह अपना स्वतंत्र ‘कमरा’ लेकर रह सके।
जीवन का, महिलाओं की स्वतंत्रता का, निचोड़ है यह।
एक सामान्य परिवार का विचार ‘साईं इतना दीजिए…’ रह सकता है। स्वयं के अलावा अतिथि का भी सत्कार कर सके - इतना। कमाता कौन है पैसा?
कोई कहता है - इसमें पूछना क्या? धनी लोगों को देख लीजिए। स्वयं जान जाएंगे। अर्थात् बुरे लोग कमाते हैं! कुछ समझाते हैं कि पैसे वाले ही कमाते चले जाते हैं। कई तरीकों से। अधिकतर बुरे। काले। उदाहरण देते हैं : कोयला घोटाला। और फिर अनगिनत घोटाले।
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