600 शबदो मे भारतीय संस्कृति में नारी धर्म पर निबंध ?
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भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है। पूरी सृष्टि ही स्त्री है, क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि, निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शांति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियां भाव-प्रधान होती हैं। ... दुर्बलता में नारी हूं ।
जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात् समग्र सृष्टि ही नारी है, इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो बरबस मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम मां हो...।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण में फंसते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है मां। अत्यंत दुख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनि उच्चारित होती है वह सिर्फ मां ही होती है। क्योंकि मां की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है । और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं, लेकिन मां ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते हैं कि -
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते हैं –
जगत मातु-पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते हैं, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परंतु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। संत ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को “माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते हैं –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचंद्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूंघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को संत कबीर स्त्री मानते हैं और शिव (ब्रह्म) को पुरुष। यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है। भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है। पूरी सृष्टि ही स्त्री है, क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि, निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शांति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियां भाव-प्रधान होती हैं।
सच कहिए तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है, बुद्दि में भी हृदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी उन्हें आनंद की अनुभूति होती है। कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नहीं कर सकता।
भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविधि कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है, उनका बुरा नहीं करती। जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नहीं सकता, क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है,
यह आज समझ मैं पाई हूं कि
दुर्बलता में नारी हूं ।
अवयन की सुंदर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूं ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है। इसके दो स्तंभ हैं - स्त्री और पुरुष।
अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा, शिक्षा, राजनीति, खेल, मीडिया सहित विविध-विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को संभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की, कि नारी विकास की केंद्र है और भविष्य भी उसी का है। स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित.