7. प्रकृति से हमें परोपकार की शिक्षा कैसे मिलती है ?
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एक संत अपने शिष्यों को अनेक वस्तुओं की उपस्थिति व उनके महत्व के बारे में बता रहे थे। शिष्य बड़े ही ध्यानपूर्वक उनकी बातों को सुन रहे थे। संत शिष्यों से बोले, ‘कल पूर्णिमा है और कल मैं रात्रि में इसी वृक्ष के नीचे तुम्हें चन्द्रमा, आकाश और नक्षत्रों के महत्व के बारे में बताऊंगा।’ अगले दिन पूर्णिमा को रात्रि में संत उसी वृक्ष के नीचे आकर बैठ गए। शिष्यों ने भी अपने-अपने स्थान ग्रहण कर लिए। संत शिष्यों से बोले, ‘आकाश की ओर देखो। आकाश में चंद्रमा अत्यंत उज्जवल एवं प्रकाशमान है। आकाश और पृथ्वी इसकी शीतलता से अभिभूत हो रहे हैं। क्या तुम बता सकते हो कि इस चंद्रमा में और सद्पुरुषों में क्या समानता है?’ संत का प्रश्न सुन कर शिष्य चुप हो गए। किसी को कोई जवाब नहीं सूझा तो संत बोले, ‘सद्पुरुषों का यश बिल्कुल इस चंद्रमा के प्रकाश की तरह अंधकार में भी सद्गुणों तथा पुण्य कार्यों के बल पर निरंतर प्रकाशमान होता रहता है।’
तभी एक शिष्य बोला, ‘गुरुजी, हम सूर्य, चंद्रमा, नदी व वृक्षों में देवता के दर्शन क्यों करते हैं और उन्हें देवतुल्य क्यों मानते हैं, जबकि ये सभी प्रकृति में शामिल हैं, फिर प्रकृति देवतुल्य कैसे है?’ प्रश्न सुन कर संत बोले, ‘हम सूर्य, चंद्रमा, नदी तथा वृक्षों में देवता के दर्शन इसलिए करते हैं, क्योंकि इन सभी का स्वभाव प्राणी मात्र को हमेशा देना ही होता है और जो कभी भी लेने की इच्छा नहीं रखता, वह देवता की श्रेणी में ही आता है। इसलिए सूर्य, चंद्रमा, नदी तथा वृक्षों की आराधना की जाती है। इसलिए प्रकृति देवतुल्य है। हम सभी को भी इन से शिक्षा लेकर अपने जीवन को ऐसा बनाने का प्रयास करना चाहिए कि हम भी लोगों को कुछ न कुछ देते रहें और लेने का भाव न रखें ।’ संत की बात शिष्यों की समझ में आ गई और उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने जीवन में हमेशा सद्गुणों व कार्यों से दूसरे लोगों की मदद करने का प्रयास करेंगे।
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