Hindi, asked by deepusrivastava55, 2 months ago

7. परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम पाठशाला है किसने कहा
(A)प्लेटो
(B) गांधी
(C) अरस्तु
(D) बार्क​

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Answered by sadiaanam
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अरस्तू के अनुसार परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम इकाई है।

Explanation:

बालक की प्रथम पाठशाला है ‘‘परिवार’’बालक की प्रथम पाठशाला है ‘‘परिवार’’ कहा गया है कि बालक अपना प्रथम पाठ माँ के चुम्बन और पिता के प्यार से ही सीखता है। वस्तुतः परिवार ही बालक की प्रथम पाठशाला है। जहाँ अपने परिजनों की छाया तले बैठकर अपनी सुसुप्त क्षमता व प्रतिभा को उजागर करता है अतः माता पिता को तथा परिजनों को अपने कार्य व्यवहार से बालक का उचित पोषण करना चाहिए ताकि वह उत्तम जीवन यापन की शिक्षा ग्रहण कर सके। सामाजिक प्राणी होने के कारण बालक में उन दक्षताओं का अविर्भाव होना चाहिए जो एक सामाजिक के लिए अनिवार्य होती है। परिवार में रहकर जहाँ बालक कर्तव्य पालन का पाठ सीखता हैं वहीं उसके नैतिक गुणों का भी विकास  होता है। बाल्यावस्था ही से बालक की गतिविधियों, वृत्तियों और आदतों का आकलन करते हुए उसे सही दिशा में अग्रसर करना माता पिता का उत्तरदायित्व है। वही समाज विकसित माना जाता है। जिसके सभी सदस्य मानवीय गुणों को जीवन का आधार बनाकर जीवन जीने का सद्प्रयास करते है।  आज का बालक कल का नागरिक होता है। अतः एक उत्तम कोटि का नागरिक बनने के लिए सहयोग की वृत्ति सहिष्णुता, नैतिकता, उदारता, सदाशयता, अनुशासन, श्रमनिष्ठा तथा सम्मानभावना और अन्य मानवीय मूल्यों को जीवन का आधार का बनाना होता है। इन सारे संस्कारों का आविर्भाव माता पिता के दिशा निर्देश तथा कार्यव्यवहार पर निर्भर है जहाँ बालक देखकर व सुनकर सीखता है। भारतीय परिवार प्रणाली में पुरातन काल ही से बालक अपने दादा दादी की गोद में बैठकर नीति कथाओं का श्रवण करते हुए ज्ञान अर्जित करता आया है। आज भी घर परिवारों में यह परम्परा विद्यमान है। बालक परिवार में रहकर बड़ों की सेवा, परिजनों का आज्ञापालन, गृहकार्य में सहयोग, माता पिता का सम्मान, कार्यव्यवहार में शालीनता, श्रम कार्य में भागीदारी तथा सेवा के अवसर प्राप्त कर जीवनोपयोगी आदर्शो का अनुगमन करता है। यही उसको उत्तम नागरिकता की दिशा में प्रवृत्त करती है। बालक की जिद्दी प्रवृत्ति, अनुशासनहीनता, अशिष्टता तथा असभ्यता की दिशा में अग्रसर होने की स्थिति में माता पिता का ही नियन्त्रण औषध स्वरुप बन जाता है। बालक की निजी समस्याओं के समाधान हेतु माता पिता संवेदनशील रहे तथा बालक को निकट से समझने के लिए उसके पास बैठने का समय भी निकाल सके। अभिभावक का दिशा बोध बालक की विकास यात्रा में पूर्णतः सहयोगी होता है।  बालक पर अनावश्यक दबाव, शोषण तथा धिक्कारना, पीटना और भयभीत करना उसके साहस व उत्साह को कुण्ठित करता हैं तथा उसकी प्रगति में बाधक हो जाता है। उसे पारिवारिक परिस्थितियों से अवगत कराते हुए मार्गदर्शन देना चाहिए। आचरण सुधार के लिए बालकों को समय-समय पर नीति कथाएं बोध कथाएं तथा लघु कथा, कहानियों से उसमे वैचारिक समरसता पैदा की जा सकती है। प्राचीन काल में बिगडैल राजकुमारों के आचरण सुधार हेतु विष्णु शर्मा जैसे गुरु पन्चतन्त्र, हितोपदेश व मित्र लाभ की बोध कथाएं व प्रेरक प्रसंग सुनाकर उनका मार्ग प्रशस्त करते थे। परिवार में रहकर बालक को रोगी सेवा, समाजोपयोगी कार्य तथा श्रम कार्य के लिए प्रेरित करना चाहिए। बालकों की नेतृत्व क्षमता का भी विकास हो, इसके लिए परिवार में पर्याप्त अवसर प्रदान किया जाए।  परिवार में रहकर बालक अपनी निजी क्षमतओं का विकास करता हैं तथा सामाजिक जीवन जीने की तैयारी भी करता है। आवश्यकता इस बात की हैं कि माता पिता अपनी सन्तान को उसकी कार्यक्षमता, दक्षता तथा कुशलताओं को उजागर करने के लिए पर्याप्त अवसर व मार्गदर्शन प्रदान करे। बालक को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उसे श्रम कार्य हेतु प्रवृत्त करना जरुरी हैं। पारिवारिक जीवन में रहकर उसे व्यावसायिक बोध भी देना आवश्यक हैं। यदि माता पिता का उत्तम आचरण है, श्रेष्ठ जीवन शैली हैं, बच्चों के प्रति अगाध स्नेह और सम्मान भावना हैं तो बालक निश्चित रुप से प्रगतिशील बनेगा। जिस परिवार में अनैतिक आचरण, कुण्ठित व्यवहार, झगड़ालू दृश्य, बेईमानी, क्रूरता और अनैतिकता का वातावरण होगा उस परिवार के बच्चे बिगडे़ल होगें और आगे जाकर उनकी गणना असामाजिक तत्वों में होने लगेगी अतः माता पिता को अपने व्यवहार,

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