Hindi, asked by arjunkumarsaw5629, 4 months ago

[8x3-24]
मनुष्य कभी वास्तव में विरागी नहीं हो सकता। विराग मृत्यु
का द्योतक है। जिसको साधारण रूप से विराग कहा जात
है, वह केवल अनुराग के केन्द्र को बदलने का दूसरा नाम
है। अनुराग चाह है, विराग तृप्ति है।
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Answers

Answered by shahdatrb9
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Answer:

[8x3-24]

मनुष्य कभी वास्तव में विरागी नहीं हो सकता। विराग मृत्यु

का द्योतक है। जिसको साधारण रूप से विराग कहा जात

है, वह केवल अनुराग के केन्द्र को बदलने का दूसरा नाम

है। अनुराग चाह है, विराग तृप्ति है।

(2)

Answered by shishir303
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मनुष्य कभी वास्तव में विरागी नहीं हो सकता। विराग मृत्यु का द्योतक है। जिसको साधारण रूप से विराग कहा जात है, वह केवल अनुराग के केन्द्र को बदलने का दूसरा नाम है। अनुराग चाह है, विराग तृप्ति है।

यह गद्यांश भगवतीचरण द्वारा रचित 'चित्रलेखा' नामक उपन्यास का एक अंश है। इस गद्यांश के माध्यम से लेखक के कहने का आशय यह है कि मनुष्य जीवन में जीवन के सुख-दुख उसे कभी भी अलग नहीं हो सकता यानी वह जीवन के प्रति वैराग्य का भाव नहीं रख सकता। यदि मनुष्य अपने जीवन के प्रति वैराग्य का भाव अपना ले तो वह जीवन से पूरी तरह विमुख हो जाएगा। यह उसकी मृत्यु के समान है यानी इस जीवन से विमुख हो जाना, जीवन को नकारने के समान है जो मृत्यु की ओर ले जाता है।

हम जिसे वैराग्य बोलते हैं, वास्तव में वह वैराग्य नहीं बल्कि अनुराग का ही दूसरा पहलू है, जो अनुराग की पूर्णता के बाद तृप्ति और आनंद का दूसरा नाम है। तृप्ति के बाद ही वैराग्य उत्पन्न होता है। इसलिए मनुष्य अपने जीवन में कभी भी पूर्ण रूप से बैरागी नहीं बन सकता। वैराग्य का भाव अपने लोग भी किसी ना किसी अनुराग से जुड़े हुए होते हैं।

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