a conversation with a soldier in hindi
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सैनिक : (यात्रियों से) आप लोग उठकर बैठ जाइए । यह सोने का डिब्बा नहीं है ।
शिक्षक : सोते यात्रियों को न जगाइए । उन्हें विश्राम करने दीजिए । यहाँ एक यात्री के बैठने के लिए स्थान है । आप यहाँ आराम से बैठ जाइए ।
सैनिक : और आप ? क्या आप मेरे सिर पर खड़े-खड़े यात्रा करेंगे ?
शिक्षक : जी नहीं, जब तक मुझे स्थान नहीं मिलता तब तक मैं एक किनारे खड़ा रहूँगा । आपके विश्राम में बाधक नहीं बनूँगा ।
सैनिक : आप तो बहुत विनम्र मालूम होते हैं । कहाँ जाएँगे आप ?
शिक्षक : विनम्रता मानव का आभूषण है । मैं शिक्षक हूँ । मुझे तो विनम्र होना ही चाहिए । मैं दिल्ली जाऊँगा, लेकिन खड़े-खड़े नहीं, आराम से बैठकर या लेटकर । देखिए, आपके भय से एक यात्री उठ बैठा । आप अपना बिस्तर बिछाकर आराम कर सकते हैं ।
सैनिक : आप मुझ पर इतनी कृपा क्यों कर रहे हैं ।
शिक्षक : मैं आप पर कृपा नहीं कर रहा हूँ, अपना कर्तव्य-पालन कर रहा हूँ । यदि मैं भी सैनिक की भाँति रूखा बन जाऊँ तो मैं राष्ट्र-निर्माता नहीं बन सकता । यह अब मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ।
सैनिक : अच्छा, आप राष्ट्र के निर्माता है । आपने अपने लिए बहुत ऊंचा पद चुन लिया । किस राष्ट्र का निर्माण आपने किया है ? जरा मैं भी तो सुनूँ ।
शिक्षक : क्या करेंगे उगप यह जानकर ? आप तो अपने मजे मैं ही मस्त हैं । आपको आपके मिथ्याभिमान ने अंधा बना दिया है । इसलिए आप राष्ट्रोन्नति में शिक्षक का महत्त्व नहीं समझ सकते । कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की है आपने ?
सैनिक : मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हूँ । अपनी वंश-परंपरा के अनुसार मैंने सैनिक शिक्षा प्राप्त की है । मैं क्षत्रिय हूँ । देश की रक्षा के लिए मैं अपनी जान हथेली पर लिये फिरता हूँ ।
शिक्षक : आप मुझसे अपनी प्रशंसा न कीजिए । मैं आपका महत्त्व समझता हूँ । लेकिन आप मेरा महत्त्व नहीं समझते । शिक्षक ने ही आपको स्नातक बनाया । शिक्षक ने ही आपको युद्धकला में पारंगत किया । शिक्षक ने ही आपके भावी जीवन का निर्माण किया । शिक्षक ने ही आपको वीर, साहसी और देश पर मर-मिटने का पाठ पढ़ाया, फिर भी आप शिक्षक को अपनी तुलना में हेय समझते हैं । यदि द्रोणाचार्य न होते तो अर्जुन-सा वीर धनुर्धर उत्पन्न न हुआ होता ।
सैनिक : बंद कीजिए अपनी बकवास ! नींव की ईटें कोई नहीं देखता । उन ईंटों पर जो इमारत खड़ी होती है, उसी को देखकर लोग उसका मूल्यांकन करते हैं । आपकी भुजाओं में एक लाठी उठाने तक की शक्ति नहीं है । आप देश की रक्षा क्या करेंगे ? सैनिक बातें नहीं वनाता, वह अपनी जान पर खेलता है । वह देश में शांति स्थापित करता है, वह देश को अनुशासन में रखता है । वह देशद्रोहियों का दमन करता है । वह शत्रुओं के दाँत खट्टे करता है और अपनी जान देकर देश की आजादी की रक्षा करता है । है शिक्षक में इतना दम ?
शिक्षक : जब तक सैनिक जवान रहता है तब तक उसके शरीर में उष्ण रक्त प्रवाहित होता रहता है और जब तक उसकी भुजाओं में बल रहता है तब तक वह अपनी वीरता का प्रदर्शन कर सकता है; किंतु जब उस पर बुढ़ापे का आक्रमण होता है तब वह कौड़ी के तीन हो जाता है ।
किंतु शिक्षक उस समय भी अपने विचारों में नौजवान बना रहता है । वह देश का मस्तिष्क है, शरीर नहीं । देश के शासकों और सैनिकों में विवेक-बुद्धि जाग्रत् करना और उन्हें कर्तव्य-पालन का प्रेरणा देना शिक्षक का काम है । यदि मैं सैनिक नहीं बन सकता तो आप भी शिक्षक बनने का गौरव प्राप्त नहीं कर सकते । आप मेरे अपरिचित नहीं हैं । आप मेरे विद्यार्थी रह चुके हैं । आपका नाम जंगबहादुर सिंह है न ?
सैनिक : हाँ, मैं जंगबहादुर सिंह ही हूँ । आप मेरे शिक्षक रह चुके हैं, इसलिए मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ और यह स्वीकार करता हूँ कि देश का कल्याण शिक्षकों द्वारा ही संभव है । शास्त्र और शस्त्र-दोनों के सहयोग से देश का कल्याण हो सकता है, यह अब मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ । मेरी भूलों के लिए आप मुझे क्षमा कर दें ।
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शिक्षक : सोते यात्रियों को न जगाइए । उन्हें विश्राम करने दीजिए । यहाँ एक यात्री के बैठने के लिए स्थान है । आप यहाँ आराम से बैठ जाइए ।
सैनिक : और आप ? क्या आप मेरे सिर पर खड़े-खड़े यात्रा करेंगे ?
शिक्षक : जी नहीं, जब तक मुझे स्थान नहीं मिलता तब तक मैं एक किनारे खड़ा रहूँगा । आपके विश्राम में बाधक नहीं बनूँगा ।
सैनिक : आप तो बहुत विनम्र मालूम होते हैं । कहाँ जाएँगे आप ?
शिक्षक : विनम्रता मानव का आभूषण है । मैं शिक्षक हूँ । मुझे तो विनम्र होना ही चाहिए । मैं दिल्ली जाऊँगा, लेकिन खड़े-खड़े नहीं, आराम से बैठकर या लेटकर । देखिए, आपके भय से एक यात्री उठ बैठा । आप अपना बिस्तर बिछाकर आराम कर सकते हैं ।
सैनिक : आप मुझ पर इतनी कृपा क्यों कर रहे हैं ।
शिक्षक : मैं आप पर कृपा नहीं कर रहा हूँ, अपना कर्तव्य-पालन कर रहा हूँ । यदि मैं भी सैनिक की भाँति रूखा बन जाऊँ तो मैं राष्ट्र-निर्माता नहीं बन सकता । यह अब मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ।
सैनिक : अच्छा, आप राष्ट्र के निर्माता है । आपने अपने लिए बहुत ऊंचा पद चुन लिया । किस राष्ट्र का निर्माण आपने किया है ? जरा मैं भी तो सुनूँ ।
शिक्षक : क्या करेंगे उगप यह जानकर ? आप तो अपने मजे मैं ही मस्त हैं । आपको आपके मिथ्याभिमान ने अंधा बना दिया है । इसलिए आप राष्ट्रोन्नति में शिक्षक का महत्त्व नहीं समझ सकते । कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की है आपने ?
सैनिक : मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हूँ । अपनी वंश-परंपरा के अनुसार मैंने सैनिक शिक्षा प्राप्त की है । मैं क्षत्रिय हूँ । देश की रक्षा के लिए मैं अपनी जान हथेली पर लिये फिरता हूँ ।
शिक्षक : आप मुझसे अपनी प्रशंसा न कीजिए । मैं आपका महत्त्व समझता हूँ । लेकिन आप मेरा महत्त्व नहीं समझते । शिक्षक ने ही आपको स्नातक बनाया । शिक्षक ने ही आपको युद्धकला में पारंगत किया । शिक्षक ने ही आपके भावी जीवन का निर्माण किया । शिक्षक ने ही आपको वीर, साहसी और देश पर मर-मिटने का पाठ पढ़ाया, फिर भी आप शिक्षक को अपनी तुलना में हेय समझते हैं । यदि द्रोणाचार्य न होते तो अर्जुन-सा वीर धनुर्धर उत्पन्न न हुआ होता ।
सैनिक : बंद कीजिए अपनी बकवास ! नींव की ईटें कोई नहीं देखता । उन ईंटों पर जो इमारत खड़ी होती है, उसी को देखकर लोग उसका मूल्यांकन करते हैं । आपकी भुजाओं में एक लाठी उठाने तक की शक्ति नहीं है । आप देश की रक्षा क्या करेंगे ? सैनिक बातें नहीं वनाता, वह अपनी जान पर खेलता है । वह देश में शांति स्थापित करता है, वह देश को अनुशासन में रखता है । वह देशद्रोहियों का दमन करता है । वह शत्रुओं के दाँत खट्टे करता है और अपनी जान देकर देश की आजादी की रक्षा करता है । है शिक्षक में इतना दम ?
शिक्षक : जब तक सैनिक जवान रहता है तब तक उसके शरीर में उष्ण रक्त प्रवाहित होता रहता है और जब तक उसकी भुजाओं में बल रहता है तब तक वह अपनी वीरता का प्रदर्शन कर सकता है; किंतु जब उस पर बुढ़ापे का आक्रमण होता है तब वह कौड़ी के तीन हो जाता है ।
किंतु शिक्षक उस समय भी अपने विचारों में नौजवान बना रहता है । वह देश का मस्तिष्क है, शरीर नहीं । देश के शासकों और सैनिकों में विवेक-बुद्धि जाग्रत् करना और उन्हें कर्तव्य-पालन का प्रेरणा देना शिक्षक का काम है । यदि मैं सैनिक नहीं बन सकता तो आप भी शिक्षक बनने का गौरव प्राप्त नहीं कर सकते । आप मेरे अपरिचित नहीं हैं । आप मेरे विद्यार्थी रह चुके हैं । आपका नाम जंगबहादुर सिंह है न ?
सैनिक : हाँ, मैं जंगबहादुर सिंह ही हूँ । आप मेरे शिक्षक रह चुके हैं, इसलिए मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ और यह स्वीकार करता हूँ कि देश का कल्याण शिक्षकों द्वारा ही संभव है । शास्त्र और शस्त्र-दोनों के सहयोग से देश का कल्याण हो सकता है, यह अब मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ । मेरी भूलों के लिए आप मुझे क्षमा कर दें ।
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