अंडे के छिलके पाठ में प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण कीजिए
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परदा उठने पर गैलरी वाला दरवाज़ा खुला दिखाई देता है। बायीं ओर के दरवाज़े के आगे परदा लटक रहा है जिससे पता नहीं चलता कि दरवाज़ा खुला है या बन्द। कमरे में कोई नहीं है।
श्याम सीटी बजाता गैलरी से आता है, पतलून और कमीज़ के ऊपर बरसाती पहने। सिर भीगा है। बरसाती से पानी निचुड़ रहा है।
अन्दर आकर वह इधर-उधर नज़र दौड़ाता है।
श्याम : अरे! कमरा ख़ाली! न भैया न भाभी! (पुकारकर) भाभी!
दूसरे कमरे से वीना की आवाज़।
वीना : कौन?...श्याम?...क्या बात है?
श्याम : इधर आओ तो बताऊँ, क्या बात है।
वीना उधर से आती है।
वीना : तुम्हें भी आकर इस तरह आवाज़ देने की ज़रूरत पड़ती है? इस तरह पुकार रहे थे जैसे किसी पराये घर में आये हो।
श्याम : पराया घर तो लगता ही है, भाभी! तुमने आते ही वह न$क्शा बदला है इस कमरे का कि मेरा अन्दर पैर रखने का हौसला ही नहीं पड़ता। पहले तो इस कमरे की वही हालत रहती थी जो आजकल मेरे कमरे की है। जूते को छोडक़र हर चीज़ या चारपाई पर या मेज़ पर। अब तो मुझे इस कमरे में सिर्फ़ वही एक कोना गोपाल भैया का नज़र आता है जहाँ पतलूनें और कोट एक-दूसरे के ऊपर टँगे हैं। बाकी कमरे की सरकार ही बदल गयी है। भैया की टेबल भी क्या याद करती होगी कि किसी का हाथ लगा है। आजकल ऐसे चमकती है जैसे नई-नई पॉलिश होकर आयी हो।
वीना : खड़े गाँव से आये हो जो खड़े-खड़े ही बात करोगे? बरसाती बाहर रख दो, सारा कमरा भिगो रहे हो। फिर बैठकर आराम से बात करो। अभी तुम्हारे भैया आते हैं तो तुम्हें चाय बना देती हूँ।
श्याम : सिर्फ़ चाय? ग़लत बात। ऐसे सुहाने मौसम में सूखी चाय नहीं पी जा सकती। हरगिज़ नहीं।
उसके सिर पर हाथ रखकर उसका मुँह बाहर की तरफ़ कर देती है।
वीना : यह सुहाना मौसम पहले गैलरी में छोड़ जाओ। सारा फ़र्श गीला कर रहे हो।
फिर पीछे से खुद ही उसकी बरसाती उतारने लगती है।
: लाओ, उतार दो बरसाती। मैं ही बाहर रख आती हूँ।
श्याम उतारते-उतारते जैसे कुछ ध्यान आ जाने से फिर बरसाती पहन लेता है।
श्याम : भाभी, एक बात कहता हूँ।
वीना : क्या बात? बरसाती तुमने फिर से पहन ली? मैं कहती हूँ, तुम तो बस...।
श्याम : भाभी, बात तो सुन लो। मैं कहता हूँ कि बरसाती आकर एक ही बार उतारूँ। चाय के साथ खाने के लिए भागकर कोई चीज़ ले आऊँ। सूखी चाय का मज़ा नहीं आएगा। इस वक़्त पानी ज़रा थमा है, फिर ज़ोर से बरसने लगेगा।
वीना : फिर वही खाने की बात? कोई ऐसा भी वक़्त होता है जब तुम्हें खाने की बात नहीं सूझती?...अच्छा जाओ, मगर लाओगे क्या?
श्याम : तुम जो कहो ले जाऊँ। इस वक़्त गर्म-गर्म कचौरी और समोसे भी मिल जाएँगे और...।
वीना : और क्या?
श्याम : और...और...कहो तो कोई और अच्छी चीज़ भी मिल सकती है...।
वीना : बरसते पानी में जाओगे तो अच्छी चीज़ ही लाओ। समोसे कचौरी क्या खाओगे?
श्याम : अच्छी चीज़...अं...अं...तो अच्छी चीज़ हो सकती है...अं...।
वीना : जाओ, चार-छह अंडे ले आओ। मैं तुम्हें अंडे का हलुआ बना देती हूँ।
श्याम : शिव, शिव, शिव! किसी और चीज़ का नाम लो, भाभी! इस घर में अंडे का नाम ले रही हो? जाओ, जल्दी से जाकर कुल्ला कर लो। मुँह भ्रष्ट हो गया होगा।
वीना : क्या बात करते हो? (दबे स्वर में) यहाँ रोज़ सुबह अंडे का नाश्ता होता है। तुम्हारे भाई साहब ने यह बिजली का स्टोव किसलिए लाकर रखा है? माँ जी से तो कहा था कि सुबह बेड-टी लेनी होती है, रसोईघर से बनाकर लाने में ठंडी हो जाती है, इसलिए ये सोलह रुपये ख़र्च किये हैं। माँ जी भी भोली हैं, झट मान जाती हैं। कोई इनसे पूछे कि, स्टोव तो बेड-टी के लिए लाये हैं, मगर यह फ्राइंग पेन किसलिए लाये हैं? इसमें क्या दूध गर्म होता है?
श्याम : संयम, संयम, संयम! ज़रा संयम से काम लो, भाभी! चार दिन जो अंडे खा लिये हैं वे छिलकों समेत वसूल हो जाएँगे। अम्मा के कान में भनक भी पड़ गयी तो सारे घर का गंगा-इश्नान हो जाएगा। और तुम देख ही रही हो कि बादलों का दिन है। किसी को कुछ हो-हवा गया तो...।
वीना : भई, तुम लोगों की यह बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आती। अगर खाना ही है तो उसमें छिपाने की क्या बात है? सबके सामने खाओ। माँ जी नहीं खातीं, इसलिए रसोईघर की बजाय यहाँ कमरे में बना लेते हैं।