“अंकों की दौड़ ”
मई के पहले सप्ताह में सी.बी.एस.सी. के दसवी और बारहवी कक्षा के परिणाम घोषित किये गए, जिसमे अधिकांश विद्यार्थियों ने 90 प्रतिशत से ज्याद अंक हासिल किए| कुछ छात्रों ने तो पाँच में से चार विषय में 100 प्रतिशत अंक प्राप्त किए| इस कारण विद्यार्थियों, अभिभावकों और अध्यापकों पर 90 प्रतिशत से अधिक अंक लाने का दबाव बढ़ता जा रहा है| ‘परीक्षा का भय और अंकों की अंधी दौड़ ने शिक्षा का उद्देश्य ही समाप्त कर दिया है|’ इस विषय पर निम्नलिखित में से किसी एक कौशल का प्रयोग करते हुए अपने विचार विस्तार से लिखिए |
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अंको की दौड़ पर एक ब्लॉग
आज हमारी शिक्षा का स्वरूप जिस स्तर तक पहुंच गया है उस पर हमें पुनर्विचार करने की जरूरत है। क्या हम सच में अब अपने बच्चों को शिक्षा ही देना चाहते हैं या उन्हें ज्यादा से ज्यादा अंक हासिल करने की एक मशीन बनाना चाहते हैं। हमने अपने बच्चों पर ऐसा दबाव बना दिया है कि 90% या उससे ऊपर अंक लाना उनकी विवशता बन चुकी है। आज शिक्षा में व्यावहारिकता का पूरी तरह से लोप हो चुका है और बच्चे केवल अपना ध्यान अधिक से अधिक अंक लाने पर ही देते हैं। उन्होंने किताबी ज्ञान को अधिक महत्व देना सीख लिया है। शिक्षा के व्यवहारिक ज्ञान से वह बिल्कुल अनजान हो गए हैं जबकि जीवन में किताबी ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान होना अति आवश्यक है और वही आगे जीवन में काम आता है।
माता-पिता भी इस अंधी दौड़ में शामिल हो गये हैं और अपने बच्चों के मन ये बात भर रह हैं कि ज्यादा अंक लाना ही जीवन में सफलता की कुंजी है। वो ये भूल जाते हैं कि कई ऐसे महान व्यक्ति भी हुये जो बचपन में पढ़ाई में एकदम फिसड्डी थे लेकिन आगे जीवन में अच्छी सफलता हासिल की।
यहां कहने का तात्पर्य ये नही है कि अच्छे अंक लाना कोई बुराई है बल्कि कहने का आशय है कि बच्चों को स्वाभाविक रूप से पढ़ने दिया जाये। उन पर ये दवाब नही बनाया जाये कि उन्हे 90 -100 प्रतिशत अंक ही लाने हैं। बच्चा अगर अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति और रुचि से पढ़ाई करेगा तो वो सहज ही अच्छे अंक लेकर आयेगा।