A poem on Manav mulya
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सुविख्यात कवि-गीतकार स्वर्गीय श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’ उस पीढ़ी के प्रतिनिधि रचनाकार थे जिन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य साधना को समर्पित कर दिया था। उनके सामने काव्य का उदात्त स्वरूप तथा उसकी विराट संवेदना के अतिरिक्त और किसी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती थी। यही कारण है कि मधुप जी की पुस्तकों का प्रकाशन, उनके देहावसान के वर्षों पश्चात उनका परिवार करवा रहा है। श्री मधुप जी के लिये साहित्य-सृजन अधिक महत्वपूर्ण था। पुस्तकों का प्रकाशन व प्रसिद्धि की ललक से कोसों दूर, इस कवि की कविताओं तथा गीतों में हिंदी के गीति-काव्य की सूक्ष्म अनुभूति तथा प्रखर अभिव्यक्ति के दिग्दर्शन होते हैं।
‘गीत विजय के’ काव्य-संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए पाठक के मानस में इसके रचनाकार की ऐसी उज्ज्वल छवि का निर्माण होने लगता है जो समकालीन कविता परिदृश्य में दुर्लभ है। जीवन और जगत की तमाम विषमताओं तथा विसंगतियों की धज्जियाँ उड़ाने वाले इस कवि की विद्रोह भावना इस संग्रह की प्रत्येक काव्य-पंक्ति में दृष्टिगोचर होती है। स्वाधीनता के पश्चात समाज में आये नैतिक पतन तथा राजनैतिक भ्रष्टाचार को तो समूल नष्ट करने का कवि प्रण ले चुका है। व्यवस्था-विरोध का जितना तीखा तथा तुर्श स्वर मधुप जी के गीतों में मिलता है, उतनी तीक्ष्णता उनके समकालीन कवियों में भी नहीं थी। निरंतर संघर्ष की अलख जगाने वाले इस रचनाकार ने अपने गीतों में कवियों तथा साहित्यकारों की भी जमकर ख़बर ली है। उसे ‘हाला’ तथा ‘प्याला’ से मुक्त हो कर क्रांति-पथ पर अग्रसर होने का संदेश दिया है। मधुप जी का मानना है कि कलम का सिपाही यदि सचेत तथा जागृत रहेगा तो समाज कभी भी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता। साहित्य के प्रति ऐसी निष्ठा, प्रतिबद्धता एवं अटूट विश्वास वास्तव में मधुप जी की काव्य-संवेदना का सर्वप्रमुख सरोकार बनकर उभरा है।
हिंदी गीति-काव्य को निजता, माधुर्य तथा शैल्पिक लालित्य तो विरासत में ही मिल गये हैं। मधुप जी ने इन काव्य गुणों की ओज की प्रखरता तथा सामाजिक चिंतन की सान पर चढ़ाकर और अधिक चमकदार बनाया है। उनके गीतों की ओजस्विता, आक्रामकता तथा प्रखरता के मूल में जहाँ राष्ट्र-भक्ति तथा अतीत के गुणगान जैसी उदात्त काव्य-प्रवृतियाँ उपस्थित हैं वहीं यथार्थ दृष्टि ने उन्हंे समकालीन संदर्भों से जोड़ कर और अधिक अर्थवान बना दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के दशकों का पूरा परिवेश, मूल्यों का विघटन तथा भौतिकवाद की अंधी दौड़ में पीछे छूटती मानवता की पीड़ा इन गीतों में सर्वत्र विद्यमान है। आज भी समाज उसी प्रकार की चिंताओं में घिरा संक्रमण की त्रासदी झेल रहा है। यही वजह है कि ये गीत पुराने हो कर भी नये संदर्भों में नये अर्थ संप्रेषित करते हैं। मधुप जी के इन गीतों में भाषा अपनी सृजनात्मक ऊर्जा के साथ अपने चरम पर प्रतीत होती है। शैल्पिक-सौष्ठव का आलोक गीतों को अद्भुत चित्रात्मकता प्रदान करता है। भावनात्मक उद्वेग इसे गंभीर चिंतन के द्वार पर पहुँचाता है। यही वजह है कि यथार्थ चित्रण करते हुए भी इन गीतों में काव्य के सौंदर्य की छटा देखते ही बनती है।
श्री मधुप जी के गीतों को प्रकाश में लाने के इस श्रमसाध्य कार्य में भाई राजेश चेतन के समर्पण भाव की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। वास्तव में उन्होंने ही हम सभी को ऋषि-ऋण से मुक्त करने में निर्णायक भूमिका निभाई है।
अंत में, मैं यही कहना चाहूंगा कि इस संग्रह के गीत मानवीय जिजीविषा, संघर्षशीलता, आस्था तथा मानव-मूल्यों की विजय के गीत हैं।
‘गीत विजय के’ काव्य-संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए पाठक के मानस में इसके रचनाकार की ऐसी उज्ज्वल छवि का निर्माण होने लगता है जो समकालीन कविता परिदृश्य में दुर्लभ है। जीवन और जगत की तमाम विषमताओं तथा विसंगतियों की धज्जियाँ उड़ाने वाले इस कवि की विद्रोह भावना इस संग्रह की प्रत्येक काव्य-पंक्ति में दृष्टिगोचर होती है। स्वाधीनता के पश्चात समाज में आये नैतिक पतन तथा राजनैतिक भ्रष्टाचार को तो समूल नष्ट करने का कवि प्रण ले चुका है। व्यवस्था-विरोध का जितना तीखा तथा तुर्श स्वर मधुप जी के गीतों में मिलता है, उतनी तीक्ष्णता उनके समकालीन कवियों में भी नहीं थी। निरंतर संघर्ष की अलख जगाने वाले इस रचनाकार ने अपने गीतों में कवियों तथा साहित्यकारों की भी जमकर ख़बर ली है। उसे ‘हाला’ तथा ‘प्याला’ से मुक्त हो कर क्रांति-पथ पर अग्रसर होने का संदेश दिया है। मधुप जी का मानना है कि कलम का सिपाही यदि सचेत तथा जागृत रहेगा तो समाज कभी भी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता। साहित्य के प्रति ऐसी निष्ठा, प्रतिबद्धता एवं अटूट विश्वास वास्तव में मधुप जी की काव्य-संवेदना का सर्वप्रमुख सरोकार बनकर उभरा है।
हिंदी गीति-काव्य को निजता, माधुर्य तथा शैल्पिक लालित्य तो विरासत में ही मिल गये हैं। मधुप जी ने इन काव्य गुणों की ओज की प्रखरता तथा सामाजिक चिंतन की सान पर चढ़ाकर और अधिक चमकदार बनाया है। उनके गीतों की ओजस्विता, आक्रामकता तथा प्रखरता के मूल में जहाँ राष्ट्र-भक्ति तथा अतीत के गुणगान जैसी उदात्त काव्य-प्रवृतियाँ उपस्थित हैं वहीं यथार्थ दृष्टि ने उन्हंे समकालीन संदर्भों से जोड़ कर और अधिक अर्थवान बना दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के दशकों का पूरा परिवेश, मूल्यों का विघटन तथा भौतिकवाद की अंधी दौड़ में पीछे छूटती मानवता की पीड़ा इन गीतों में सर्वत्र विद्यमान है। आज भी समाज उसी प्रकार की चिंताओं में घिरा संक्रमण की त्रासदी झेल रहा है। यही वजह है कि ये गीत पुराने हो कर भी नये संदर्भों में नये अर्थ संप्रेषित करते हैं। मधुप जी के इन गीतों में भाषा अपनी सृजनात्मक ऊर्जा के साथ अपने चरम पर प्रतीत होती है। शैल्पिक-सौष्ठव का आलोक गीतों को अद्भुत चित्रात्मकता प्रदान करता है। भावनात्मक उद्वेग इसे गंभीर चिंतन के द्वार पर पहुँचाता है। यही वजह है कि यथार्थ चित्रण करते हुए भी इन गीतों में काव्य के सौंदर्य की छटा देखते ही बनती है।
श्री मधुप जी के गीतों को प्रकाश में लाने के इस श्रमसाध्य कार्य में भाई राजेश चेतन के समर्पण भाव की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। वास्तव में उन्होंने ही हम सभी को ऋषि-ऋण से मुक्त करने में निर्णायक भूमिका निभाई है।
अंत में, मैं यही कहना चाहूंगा कि इस संग्रह के गीत मानवीय जिजीविषा, संघर्षशीलता, आस्था तथा मानव-मूल्यों की विजय के गीत हैं।
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