अंत भला तो सब भला लोकोक्ति को वैश्विक महामारी के साथ जोड़ते हुए 80 से 100 शब्दों में अनुच्छेद लिखिए
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अक्सर कहा-सुना जाता है कि कर भला हो भला, अंत भला तो सब भला। परंतु जीवन और संसार में क्या भला और बुरा है, क्या पुण्य है और क्या पाप है, इस संबंध में कोई भी व्यक्ति अंतिम या निर्णायक रूप से कुछ नहीं कह सकता। मेरे लिए जो वस्तु भक्ष्य है, स्वास्थ्यप्रद और हितकर है, वही दूसरे के लिए अभक्ष्य, अस्वास्थ्य औश्र अहितकर हो सकती है। मुझे जो चीज या बात अच्छी लगती है वही दूसरे को बुरी भी लग सकती है। पर यदि हम यही मानकर मनमानी करने लगें, अपने आसपास रहने वालों की इच्छा आकांक्षा या भावना का ध्यान न रखें, तब भला यह जीवन और समाज कैसे ठीक ढंग से चलकर विकास कर सकता है? निश्चय ही हर मनुष्य की अपनी इच्छा-आकांक्षा के साथ-साथ पूरे समाज का भी ध्यान रखना पड़ता है। इसी में अपना तथा सबका भला हुआ करता है। हो सकता है, पहले-पहले हमें ऐसा सब करते समय अच्छा न भी लगे, पर निरंतर अभ्यास से, उस सबका परिणाम देखकर आज का बुरा अच्छा भी लग सकता है। वस्तुतः अच्छा या भला वही हुआ करता है जो आरंभ में बुरा लगकर भी अंत में भला लगे या भला परिणाम देखकर आज का बुरा अच्छा भी लग सकता है। वस्तुत: अच्छा या भला वही हुआ करता है। जो आरंभ में बुरा लगकर भी अंत में भला लगे या भला परिणाम लाए। जिसे करके पछताना न पड़े और सभी का भला संभव हो सके। इस कहावत का सार तत्व यही स्पष्ट करना है।
उदाहरण के लिए, हम कड़वी दवाई, नीम या आंवले को ही ले सकते हैं। दवाई खाई नहीं जाती, अपनी कड़वाहट के कारण नीम पी नहीं जाती, कसैलेपन के कारण आंवला खाया नहीं जाता। पर सभी जानते हैं कि इनके सेवन का परिणाम अंत में भला ही सामने आया करता है। आंवले को अमृतफल इसी कारण कहा गया है कि उसका अंतिम परिणाम बड़ा सुखद होता है और बाद में ही मालूम पड़ा करता है। इसी प्रकार मानव होने के नाते कई बातें रूचि के अनुकूल न होने के कारण, अनुकूल न लगने पर भी हमें इसी कारण करनी या निभानी पड़ती है कि उनका अंतिम परिणाम सारे मानव समाज के लिए भला होने की आशा हुआ करती है। यह आशापूर्ण व्यवहार ही जीवन संसार में संतुलन बनाए हुए हैं। अतः ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जो वास्तव में जन हित साधक हो