अंधेरे में गुम होता बचपन का अर्थ स्पष्ट कीजिए ।
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आज दौड़ती भागती जिंदगी में मनुष्य रोज ही न जाने कितनी जद्दो जहद से रूबरू होता है। संचार क्रांति के इस युग में बच्चों पर ध्यान देने की फुर्सत शायद ही माता पिता को रह गई है। पैसा कमाने की अंधी होड़ में बच्चों का बचपन गुम हो रहा है। बच्चों की बाल सुलभ हरकतें भी संकीर्णता की ओर बढ़ती जा रही हैं। गली मोहल्ले, मैदानों में बच्चे अब कम ही खेलते दिखते हैं। गिल्ली डंडा, कंचे, पिट्ठू, डीपरेस (छुपा छुपऊअल), चोर सिपाही, अट्ठू जैसे घरेलू पारंपरिक खेल भी दिखाई नहीं देते हैं। दादी मॉ या नानी मॉ से कहानियां सुनने की फुर्सत बच्चों को नहीं रह गई है। पंचतंत्र, हितोपदेश की ज्ञानवर्धक कहानियां भी अब इतिहास में शामिल हो चुकी हैं। आधुनिकता के बीच सब कुछ बदल चुका है। गरीब बच्चों की दशा आज भी वैसी ही है जैसी कि आजादी के समय थी। गरीब गुरबों के बच्चों का बचपन तब भी अभावों में कटता था और आज की स्थिति में भी इसमें बदलाव की किरणें प्रस्फुटित नहीं हो पाई हैं।