अंधेर नगरी की कुछ विशेषताएं बताइए
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अंधेर नगरी' के नाट्यशिल्प की विशेषताएँ अंधेर नगरी का नाट्यशिल्प अत्यंत लचीला, सरल, आकर्षक और गत्यात्मक है।
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अंधेर नगरी का नाट्यशिल्प अत्यंत लचीला, सरल, आकर्षक और गत्यात्मक है। भारतेंदु ने इसमें किसी एक प्रकार के परम्परागत अथवा आधुनिक शिल्प का प्रयोग नहीं किया है बल्कि नाटक को रूढ़ियों से, एक प्रचलित ढाँचे से मुक्त किया है। यह भारतेंदु की निरंतर नवीन ग्रहण-वृत्ति और रचना-वृत्ति को स्पष्ट करता है। अंधेर नगरी की पूरा कथावस्तु पाँच अंकों में विभाजित है और इन अंकों में कोई दृश्य विधान नहीं है। इस नाटक में भारतेंदु की विशेषता उन अंकों या दृश्यों की कल्पना, उनके संयोजन और उनकी नाटकीयता में है। आप जानते हैं कि प्रायः श्रेष्ठ नाटककार ऐसे नाटकीय व्यंग्य को लेता है जिस पर पूरे नाटक का ढाँचा खड़ा होता है। अंधेर नगरी में भी गहरी व्यंग्यमूलक नाटकीय स्थिति इस प्रश्न से जुड़ती है कि दीवार किसके कारण गिरी? क्या वह अपराध सिद्ध हुआ? क्या न्याय मिला? क्या अपराधी बस खोजा जाता रहा? नाटकीय स्थिति की विशिष्टता और व्यंग्यात्मकता नाटक को आद्यंत चुस्त और लयात्मक सौंदर्य से युक्त बनाए रखती है। इसका लीचला शिल्प इसे यथार्थपरक भी बनाता है और शैलीबद्ध भी। हमेशा नए आस्वाद की संभावनाओं का यह सदाबहार नाटक कहा जा सकता है।
अंधेर नगरी के कथानक की बुनावट में खुलापन और ताज़गी है। बाज़ार दृश्य और दरबार दृश्य इसके अमूल्य नाटकीय दृश्य (अंक) हैं। सत्ता की अंध-व्यवस्था, विवेकहीनता, मूल्यहीनता का परिचय इन दो दृश्यों से मिलता है। बाज़ार का दृश्य पूरे देश के स्तर पर सस्तेपन, विकृति, आडम्बर, अमानवीयता, शोषण और संवेदनहीनता को व्यक्त करता है। चना ज़ोर गरम बेचने वाले घासीराम के शब्दों में ‘चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते।’ कुंजड़िन सब्जी बेचते-बेचते अंत में जब यह कह देती है कि ‘ले हिंदुस्तान का मेवा-फूट और बैर’ तो सारा सब्जी बाज़ार व्यंग्यात्मक अर्थ की व्यापकता में बदल जाता है। पाचक वाले की पंक्तियाँ, महाजन, एडीटर बनिये, नाटक वाले, पुलिस सब पर प्रहार करती हैं। जो केवल ब्रिटिश शासकं तक ही सीमित नहीं है और इन सबके बीच में भारतेंदु जात वाले ब्राह्मण को टके में जात बेचते दिखा देते हैं तो सारी मूल्यहीनता और संवेदनशून्य स्थिति साकार हो जाती है। चौथा अंक राजनीतिक कार्यर्रवाइयों के खोखलेपन, न्याय-प्रक्रिया के अमानवीय रूप और आम आदमी की पीड़ा में उलझी स्थितियों को दिखाता है। इसमें गति, क्रियाओं, लयों की अनंत संभावनाएँ हैं। शिल्प का यह लचीलापन निर्देशकों को आकृष्ट करता रहा है। अंधेर नगरी जैसे नाटक में पात्रों के चरित्र-चित्रण की अलग से कोई आवश्यकता नहीं होती। इसमें यद्यपि कई पात्र हैं लेकिन मुख्यत महन्त, गोबरधनदास, मंत्री और राजा – ये चार विशेष पात्र हैं क्योंकि यही कथानक का आरंम, विकास और अंत करते हैं – यही सत्ता-लोलुपता, लोभवृत्ति और नीति-उपदेश के प्रतीक हो जाते हैं। इन्हीं से नाटक की कथा और उसका लक्ष्य सम्प्रेषित हो जाता है। नाटकीय व्यापारों के चयन और संयोजन की कुशलता की दृष्टि से अंधेर नगरी विशिष्ट रचना है, पात्र उसी के अनिवार्य अंग हैं।
अंधेर नगरी के नाट्य-शिल्प की विशेषता उसमें अंतर्निहित लोकधर्मी चेतना है। उसका खुलापन, गायन, नृत्य, काव्य, संवाद-उच्चारण, भाषा, अभिनय-शैली, गति-संचार – सब लोक नाटकों जैसा है। चौथे अंक/दृश्य को आप पूर्णतः स्वांग के रूप में देख सकते हैं। संगीत, काव्य धुनों के प्रयोग में रचना के आवेग और उत्तेजना में आप इसे नौटंकी जैसा पाएंगे। नाटक के संघटन में लचीलापन इतना है कि पात्रों के प्रवेश-प्रस्थान नाटककार की तरह नहीं, निर्देशक अपनी कल्पनानुसार कर लेता है। जन-समूह की चेतना और रुचि संस्कार का प्रभाव नाटक में है। कार्य की जिस त्वरित गति को, बात कहने की सर्वथा मौलिक निजी शैली को भारतेंदु ने पकड़ा है, वही अंधेर नगरी को कालजयी बनाता है। नाटक देखहु सुख पायी’ यह अवधारणा, दर्शक की उपस्थिति का अहसास अंधेर नगरी के शिल्प को न भारी भरकम बनाता है, न अतिनाटकीय और न ही अतिरंजनापूर्ण स्थितियों का घटना-प्रधान नाटक।
यह भारतेंदु के कथा-विन्यास, संयोजन और संरचना का ही वैशिष्ट्य है कि इतनी संक्षिप्त कथा और प्रसंगों को लेकर नाटकीय स्थितियों और दृश्यों की रचना और संयोजन वह इस प्रकार करते हैं कि एक ओर रोचकता और जिज्ञासा बनी रहती है, दूसरी ओर, अपराधी की खोज और फरियादी के न्याय पर भी ध्यान केंद्रित रहता है। बाज़ार और राजसभा के दृश्य की संरचना बहुत कठिन है। दोनों में बिखराव, एकरसता, पुनरावृत्ति दोष, मिथ्या चमक-दमक आ सकती थी पर आप देखेंगे कि ये दोनों दृश्य संकेतात्मकता, व्यंग्यात्मक टोन और प्रस्तुति पद्धति को किस तरह नई कल्पना और विस्तार देते हैं। भारतेंदु ने बेचने वालों के क्रम, उनकी शब्दावली, उनके निजी टोन और लय के अंतर और स्त-भेद को बनाए रखा है। कबाब वाला मंच पर आकर सहसा बाज़ार दृश्य की संरचना करता है। भारतेंदु ने बाजार के दृश्य में संवादों के लिए लोक-प्रचलित पद्यात्मक पद्धति ली है। पुरुष और स्त्री स्वरों के क्रम से इस दृश्य का आकर्षण बढ़ाया गया है, आप अनुभव कर सकते हैं कि मुगल और जात वाला ब्राह्मण अपने प्रस्तुत क्रम से कहीं पहले एकदम शुरू में ही रखे गए होते तो वह व्यंग्य न उभरता। जाति बेचने की अत्यंत रोचक संरचना सारी पृष्ठभूमि बन जाने के कारण ही सार्थक हुई है।
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