aacharan Mein Shabd AVam Wadi ke mahatva ko spasht kijiye
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सम्पर्क में आते ही मनुष्य के जिस कृत्य का सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है वह व्यवहार ही है। किसी व्यक्ति की वेश- भूषा, आकृति और उसके बोलने का ढंग ही प्रथम सम्पर्क में आते हैं। खान- पान की आदतें, रहन- सहन, प्रकृति, स्वभाव और आचार- विचार तो बाद में मालूम पड़ते हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता है। इसीलिए कहा गया है कि व्यवहार मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का विज्ञापन है। दीखने में कोई बड़े सौम्य दिखाई देते हैं, आकृति बड़ी शान्त और सरल होती है लेकिन जैसे ही कोई उनसे सम्पर्क करता है, तो उनकी वाणी से वे सभी बातें व्यक्त हो जाती हैं जो उनके स्वभाव में दुर्गुणों के रूप में शामिल है।
असंस्कृत मन अशिष्ट, भद्दे और फूहड़ व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। कुसंस्कारी चित्त उसी प्रकार व्यवहार के माध्यम से अपना परिचय दे देता है और पहले सम्पर्क की प्रतिक्रिया अन्त तक अपना प्रभाव कायम रखती है, यहाँ तक कि वह बाद के सभी अच्छे प्रभावों को भी धूमिल कर देता है। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व का गठन करते समय आचरण, रहन- सहन और स्वभाव को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के साथ- साथ व्यवहार के द्वारा भी अपनी आदर्शवादिता का प्रभाव छोड़ना चाहिए।
शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण है। व्यवहार में इन गुणों का समावेश होने पर ही पता चलता है कि व्यक्ति कितना सुसंस्कारी है। प्रायः लोग आत्मीयता जताने या अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए अन्य व्यक्तियों से आदेशात्मक शैली तू- तेरे का संबोधन करते देखे जाते हैं। इसका यह अर्थ होता है कि व्यक्ति में सेवाभावना होते हुए भी अच्छे संस्कारों की कमी है अथवा केवल वह अपने अहंकार का पोषण करने के लिए इस क्षेत्र में आया है। हर किसी से आप या तुम का संबोधन तथा बातचीत करने में निर्देशानुसार शैली के स्थान पर सुझाव शैली का उपयोग सिद्ध करता है कि लोकसेवी कोई संदेश लेकर पहुँच रहा है, न कि अपने बड़प्पन या विद्वता की छाप छोड़ने के लिए। शिष्टता का अर्थ है- प्रत्येक के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार और शालीनता अर्थात् प्रत्येक के प्रति स्नेह और आत्मीयता की उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति।
स्नेह और आत्मीयता तो सर्वत्र व्यक्त की जाती है। असंस्कृत वर्ग के दो मित्र मिलते हैं तो वे भी स्नेह प्रदर्शन और प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी परिभाषा में जो फूहड़पन होता है वह अभिव्यक्ति के स्तर में गिरावट ला देता है। लोकसेवी को तो अपने आचरण और व्यवहार द्वारा भी लोकशिक्षण करना है, साथ ही अपने व्यक्तित्व का स्तर भी ऊँचा उठाना है। अतः यह आवश्यक है कि व्यवहार में स्नेह, प्रेम का समावेश करने के साथ- साथ शिष्टता और शालीनता भी समाविष्ट की जाएँ।
शिष्टता के साथ शान्तिपूर्वक बोलने और आवेशग्रस्त न होने की आदत भी लोक सेवी के स्वभाव का अंग होनी चाहिए। वैसे बहुत से लोग स्वाभाविक रूप से ही कठोर और कटुभाषी होते हैं। जोर से बोलना या कटूक्तियाँ कहना उनके स्वभाव में ही रहता है, लेकिन यह भी संभव है कि वे अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की दृष्टि से कठोर व्यवहार कर रहे हों, किन्तु स्वभावगत कटुता तो लोकसेवी के स्वभाव में होनी ही नहीं चाहिए। सिद्धांतों के प्रश्न पर भी लोकसेवी का व्यवहार कटु- कर्कश न हो, दृढ़ता बात अलग है और कटुता बात अलग है।
दृढ़ता का अर्थ है अपने सिद्धान्तों और मर्यादाओं पर अडिग रहने की निष्ठा। कई अवसर आते हैं जब सिद्धान्तों से विचलित होने का भय उपस्थित हो जाता है। लोग अपने स्नेह और श्रद्धावश उस तरह का आग्रह भी करते हैं। लोगों की श्रद्धा व्यक्ति के प्रति केन्द्रीभूत होकर उसे सम्मानित करने, अभिनन्दित करने के लिए भी उमड़ सकती है और व्यक्तिपूजा का क्रम चल पड़ता है। ऐसी स्थिति में अपने आदर्शों पर दृढ़ रहने, मर्यादाओं का पालन करने के लिए दृढ़ रहना तो आवश्यक है, पर कटु होने की कहीं भी आवश्यकता नहीं है।
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