Social Sciences, asked by vinayvalmiki15, 10 months ago

aadhunik Vishva mein charwahe​

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Answered by hsinghs1612gmailcom
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वनों और चरागाहों को आधुनिक सरकारों ने नियंत्रित करना शुरू किया और उनकी पाबंदियों से उन पर भी असर पड़ा जो इन संसाधनों पर आश्रित थे।

जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं। इस समुदाय के अधिकतर लोग अपने मवेशियों के लिए चरागाहों की तलाश में भटकते-भटकते उन्नीसवीं सदी में यहाँ आए थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया वे यहीं के होकर रह गए और यहीं बस गए।

हिमाचल प्रदेश के चरवाहे समुदाय को गद्दी कहते हैं |

गढवाल और कुमाऊँ के इलाके में पहाडियों के नीचले हिस्से के आस पास पाए जाने वाले शुष्क या सूखे जंगल का इलाका को भाबर कहते हैं ।

उच्ची पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित विस्तृत चरागाहों को बुग्याल कहते है। जैसे - पूर्वी गढवाल के बुग्याल जहॉ भेड चराये जाते है।

धंगर महाराष्ट्र का एक चारवाहा समुदाय है |

धंगर समुदाय महाराष्ट्र का जाना माना चरवाहा समुदाय हैं । जो जीविका के लिए कम्बल और चादरें भी बनाते थे, कुछ भैंस भी पालते थे और अक्टूबर के आसपास ये बाजरें की कटाई भी करते थे।

रबी: जाड़ों की फसलें जिनकी कटाई मार्च के बाद शुरू होती है।

खरीफ: सितंबर-अक्तूबर में कटने वाली फसलों को खरीफ कहते हैं |

ठूँठ पौधों की कटाई के बाद जमीन में रह जाने वाली उनकी जड़ को ठूँठ कहते हैं |

कर्नाटक और आध्र प्रदेश में पाए जाने वाले चरवाहे समुदाय है गोल्ला , कुरूमा, और कुरूबा समुदाय जबकि उतर प्रदेश, मध्य प्रदेश में बंजारे होते हैं |

देश के एक बडे भाग विशेष कर पंजाब, राजस्थान, उतर प्रदेश, मध्यप्रदेश, और महाराष्ट्र आदि के ग्रमीण क्षंत्रों में पाई जाने वाली चरावहा टुकडों को बंजारा कहा जाता है।

बंजारे नई घास भूमियों की तलाश में अपने पशुओं के साथ दूर दूर तक घूमते रहते है। भोजन और पशु चारा के बदले में हल चलाने वाले पशुओं और दूध उत्पादों का लेन देन कर लेते है। साथ ही साथ इन पशुओं की खरीद ब्रिक्री भी करते रहते है।

राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था। इस इलाके में बारिश का कोई भरोसा नहीं था। होती भी थी तो बहुत कम। इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फसल होती ही नहीं थी। इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम करते थे।

राइकाओं का एक तबका ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे।

औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में गहरे बदलाव आए |उनके चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने-जाने पर बंदिशें लगने लगीं और

उनसे जो लगान वसूल किया जाता था उसमें भी वृद्धि हुई । खेती में उनका

हिस्सा घटने लगा और उनके पेशे और हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।

परंपरागत अधिकार : परंपरा और रीति-रिवाज के आधर पर मिलने वाले अधिकार को परंपरागत अधिकार कहते हैं |

वन अधिनियमों ने चरवाहों की जिंदगी बदल डाली | अब उन्हें उन जंगलों में जाने से रोक दिया गया जहाँ उनके मवेशियों के लिए बहुमूल्य चारे का स्रोत थे |

जिन क्षेत्रों में उन्हें प्रवेश की छूट दी गई वहाँ भी उन पर कड़ी नजर रखी जाती थी जंगलों में दाखिल होने के लिए उन्हें परमिट लेना पड़ता था। जंगल में उनके प्रवेश और वापसी की तारीख पहले से तय होती थी और वह जंगल में बहुत कम ही दिन बिता सकते थे।

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