Aadmi ka baccha by yashpal and gaarmi ke din by kamleshwar summary in short
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आदमी का बच्चा
दो पहर तक डौली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है. इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है. मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती
है. साहब जल्दी में रहते हैं. ठीक एक बजकर सात मिनट पर आये, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता है. आधे घंटे में खाना समाप्त कर, सिगार सुलगा साहब कार में मिल लौट जाते हैं. लंच के समय डौली खाने के कमरे में नहीं आती, अलग खाती है.
संध्या साढ़े पांच बजे साहब मिल से लौटते हैं तो बेफिक्र रहते हैं. उस समय वे डौली को अवश्य याद करते हैं. पांच-सात मिनट उससे बात करते हैं और फिर मामा से बातचीत करते हुए देर तक चाय पर बैठे रहते हैं. मामा दोपहर या तीसरे पहर कहीं बाहर जाती हैं तो ठीक पांच बजे लौट कर साहब के लिए कार मिल में भेज देती हैं. डौली को बुला साहब के मुआयने के लिए तैयार कर लेती हैं. हाथ-मुंह धुलवा कर डौली की सुनहलापन लिये, काली-कत्थई अलकों में वे अपने सामने कंघी कराती हैं. स्कूल की वर्दी की काली-सफेद फ्रॉक उतारकर, दोपहर में जो मामूली फ्रॉक पहना दी जाती है उसे बदल नयी बढ़िया फ्राक उसे पहनायी जाती है. बालों में रिबन बांधा जाता है. सैंडल के पालिश तक पर मामा की नज़र जाती है.
बग्गा साहब मिल में चीफ इंजीनियर हैं. विलायत पास हैं. बारह सौ रुपया महीना पाते हैं. जीवन से संतुष्ट हैं परंतु अपने उत्तरदायित्व से भी बेपरवाह नहीं. बस एक ही लड़की है डौली. पांचवें वर्ष में है. उसके बाद कोई संतान नहीं हुई. एक ही संतान के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर सकने से साहब और मामा को पर्याप्त संतोष है. बग्गा साहब की नज़रों में संतान के प्रति उत्तरदायित्व का आदर्श ऊंचा है. वे डौली को बेटी या बेटा सब कुछ समझकर संतोष किये हैं. यूनिवर्सिटी की शिक्षा तो वह पायेगी ही. इसके बाद शिक्षा-क्रम पूरा करने के लिए उसका विलायत जाना भी आवश्यक और निश्चित है. संतान के प्रति शिक्षा के उत्तरदायित्व का यह आदर्श कितनी संतानों के प्रति पूरा किया जा सकता है? साहब कहते हैं- ‘यों कीड़े-मकोड़े की तरह पैदा करके क्या फायदा?’ मामा-मिसेज़ बग्गा भी हामी भरती हैं- ‘और क्या?’
‘डौली! …डौली! …डौली!…’ मामा तीन दफे पुकार चुकी थीं. चौथी दफे, उन्होंने आया को पुकारा. कोई उत्तर न पा वे खिसिया कर स्वयं बरामदे से निकल आयीं. अभी उन्हें स्वयं भी कपड़े बदलने थे. देखा- बंगले के पिछवाड़े से, जहां धोबी और माली के क्वार्टर हैं, आया डौली को पकड़े, लिये आ रही है. मामा ने देखा और धक्क से रह गयीं. वे समझ गयीं- डौली अवश्य माली के घर गयी होगी. दो-तीन दिन पहले मालिन के बच्चा हुआ था. उसे गोद में लेने के लिए डौली कितनी ही बार जिद्द कर चुकी थी. डौली के माली की कोठरी में जाने से मामा भयभीत थीं. धोबी के लड़के को पिछले ही सप्ताह खसरा निकला था.
Aadami ka bachchaa
लड़की उधर जाती तो उन बेहूदे बच्चों के साथ शहतूत के पेड़ के नीचे धूल में से उठा-उठाकर शहतूत खाती. उन्हें भय था, उन बच्चों के साथ डौली की आदतें बिगड़ जाने का. आया इन सब अपराधों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर अनुभव कर भयभीत थी. मेम साहब के सम्मुख उनकी बेटी की उच्छृंखलता से अपनी बेबसी दिखाने के लिए वह डौली से एक कदम आगे, उसकी बांहें थामे यों लिये आ रही थी जैसे स्वच्छंदता से पत्ती चरने के लिए आतुर बकरी को जबरन कान पकड़ घर की ओर लाया जाता है.
मामा के कुछ कह सकने से पहले ही आया ने ऊंचे स्वर में सफाई देना शुरू किया- ‘हम ज़रा सैंडिल पर पालिश करें के तईं भीतर गयेन. हम से बोलीं कि हम गुसलखाने जायेंगे. इतने में हम बाहर निकल कर देखें तो माली के घर पहुंची हैं. हमको तो कुछ गिनती ही नहीं. हम समझाएं तो उलटे हमको मारती है…’
इस पेशबंदी के बावजूद भी आया को डांट पड़ी.
‘दिस इज़ वेरी सिली!’ मामा ने डौली को अंग्रेज़ी में फटकारा. अंग्रेज़ी के सभी शब्दों का अर्थ न समझ कर भी डौली अपना अपराध और उसके प्रति मामा की उद्विग्नता समझ गयी.
तुरंत साबुन से हाथ-मुंह धुलाकर डौली के कपड़े बदले गये. चार बज कर बीस मिनट हो चुके थे, इसलिए आया जल्दी-जल्दी डौली को मोजे और सैंडल पहना रही थी और मामा स्वयं उसके सिर में कंघी कर उसकी लटों के पेचों को फीते से बांध रही थी. स्नेह से बेटी की पलकों को सहलाते हुए उन्हें अचानक गर्दन पर कुछ दिखलाई दिया- जूं! वज्रपात हो गया. निश्चय ही जूं माली और धोबी के बच्चों की संगत का परिणाम थी. आया पर एक और डांट पड़ी और नोटिस दे दी गयी कि यदि फिर डौली आवारा, गंदे बच्चों के साथ खेलती पायी गयी तो वह बर्खास्त कर दी जाएगी.
बेटी की यह दुर्दशा देख मां का हृदय पिघल उठा. अंग्रेज़ी छोड़ वे द्रवित स्वर में अपनी ही बोली में बेटी को दुलार से समझाने लगीं- ‘डौली तो प्यारी बेटी है, बड़ी ही सुंदर, बड़ी ही लाड़ली बेटी. हम इसको सुंदर-सुंदर कपड़े पहनाते हैं. डौली, तू तो अंग्रेज़ों के बच्चों के साथ स्कूल जाती है न बस में बैठकर! ऐसे गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलते न!’
मचल कर फर्श पर पांव पटक डौली ने कहा- ‘मामा, हमको माली का बच्चा ले दो, हम उसे प्यार करेंगे.’
‘छी…छी…!’ मामा ने समझाया, ‘वह तो कितना गंदा बच्चा है! ऐसे गंदे बच्चों के साथ खेलने से छी-छी वाले हो जाते हैं. इनके साथ खेलने से जुएं पड़ जाती हैं. वे कितने गंदे हैं, काले-काले धत्त! हमारी डौली कहीं काली है? आया, डौली को खेलने के लिए मैनेजर साहब के यहां ले जाया करो. वहां यह रमन और ज्योति के साथ खेल आया करेगी. इसे शाम को कम्पनी बाग ले जाना.’