आज की सि्थति देखते हुए भारतीय संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति की तुलना करते हुए अनुछेद लिखिए
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वेशभूषा के संदर्भ में — पश्चिम सभ्यता आक्रमण की निषेधिका नहीं है अपितु आक्रमण शीला गरीयसी है जिसकी आँखों में विनाश की लीला विभीषिका घूरती रहती हैं सदा। सदोदिता और महामना जिस ओर अभिनिक्रमण कर गए सब कुछ तजकर वन गए उसी ओर उन्हीं की अनुक्रम निर्देशिका, भारतीय संस्कृति है सुख शांति की प्रवेशिका।
किसी भी देश का अपना इतिहास होता है, परम्परा होती है। यदि देश को शरीर माने तो संस्कृति उसकी आत्मा है। किसी भी संस्कृति में आदर्श होते हैं, मूल्य होते हैं। इन मूल्यों की संवाहक संस्कृति होती है। भारतीय संस्कृति में चार मूल्य प्रमुख हैं— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यह बात अलग है कि पाश्चात्य संस्कृति में अर्थ और काम की प्रमुखता है। सादा जीवन उच्च विचार हमारी संस्कृति की परम्परा समझी जाती थी परन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ एवं पाश्चात्य संस्कृति का जीवन में प्रवेश होने से वह परिभाषा कहां चली गई पता ही नहीं । आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित मूकमाटी महाकाव्य में वह परिभाषा हमें मिलती हैं—
इस युग के दो मानव अपने को खोना चाहते हैं एक भोग रोग मद्यपान को चुनता है और एक योग त्याग आत्मध्यान को धुनता है। कुछ ही क्षणों में दोनों होते विकल्पों से मुक्त फिर क्या कहना एक शव के समान निरा पड़ा है और एक शिव के समान खरा उतरा है।
सच यही है वे दोनों संस्कृतियां जिनमें से हमें क्या चुनना है यह हमारे ऊपर निर्भर है। वर्तमान में सामाजिक बदलाव को देखकर ऐसा लगने लगा है कि जैसे न ही हमारी संस्कृति रह गई है न ही हमारी सभ्यता। जहाँ तक सवाल है पश्चिमी सभ्यता का तो हम लोगों ने उन बातों को अपनाया जो भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल थीं। जिस भारतीय समाज में हम रहते हैं वहां का वातावरण, सभ्यताएं, मर्यादाएं नैतिक मूल्य कुछ और ही हैं। ऐसे में जब हम पहनावे में उसकी खुली सोच और खुलेपन का अंधानुकरण करते हैं तो हमारे वातावरण में नग्नता दिखाई देती है।
हवा में अजीब सी गंदगी घुल गई है मानव मस्तिष्क पर विपरीत असर कर रही है बात मैं हवा की नहीं कर रही हूँ । मैं हवा के माध्यम से हमारे चारों ओर के सामाजिक परिवेश की चर्चा कर रही हूँ । पाश्चात्य से बटोरा है हमने काम—ग्रसित समाज जिसने हमारी भावनाओं को काम के वशीभूत किया है। लिया है हमने पाश्चात्य से अतिमहत्वाकांक्षी होने का मन्त्र जिसने हमें हमारे सामाजिक परिवेश में अनुशासनहीन जीवन जीने की ओर अग्रसर किया है जाना है हमने पाश्चात्य से न्यूक्लीयर युक्त समाज में जीवन जीने का तंत्र । इस तंत्र ने मानव सभ्यता को इसके अंत पर लाकर खड़ा किया है। पाश्चात्य से हमने सीखा है वर्णशंकर युक्त नई पीढ़ी के साथ जीवन जीने का मार्ग, यह मार्ग बड़ा आसाँ है हमारे भारत धर्म भारतीय की संस्कृति को अधोगति में ले जाने के लिए। चाहिए तो था हम बटोरते कुछ ऐसा पाश्चात्य संस्कृति से जो उसे हमसे कुछ मायनों में आदर्श बनाती है जैसे कि हम उनकी ही तरह ईमानदार होते, राष्ट्र के प्रति समर्पित होते, राष्ट्रप्रेमी होते, अनुशासित होते जो हमें सम्पूर्ण मानव बनने में सहायक होती।हम एक आदर्श भारतीय समाज का निर्माण कर पाते हम आसमां पर चमकते न कि भ्रष्टाचार , बलात्कार, अपराध की सूचि में सबसे ऊपर होते।