आज के शिक्षित तथा आधुनिक समाज में वृदधा-आश्रम के बढ़ते हुये चलन के लिए जिम्मेदा
कौन? इस पर अपने विचार 150 से 200 शब्दों में व्यक्त करें।
Pls write the essay only 150 WORDS
first answer will be brainliest.
FAST FAST FAST
Answers
Answer:
प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। सामाजिक प्रकृति-गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ था। व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। ये चार आश्रम थे- (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।
अमरकोश (७.४) पर टीका करते हुए भानु जी दीक्षित ने 'आश्रम' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है: आश्राम्यन्त्यत्र। अनेन वा। श्रमु तपसि। घं्ा। यद्वा आ समंताछ्रमोऽत्र। स्वधर्मसाधनक्लेशात्। अर्थात् जिसमें स्म्यक् प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। आश्रम का अर्थ 'अवस्थाविशेष' 'विश्राम का स्थान', 'ऋषिमुनियों के रहने का पवित्र स्थान' आदि भी किया गया है।
आश्रमसंस्था का प्रादुर्भाव वैदिक युग में हो चुका था, किंतु उसके विकसित और दृढ़ होने में काफी समय लगा। वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य अथवा गार्हपत्य का स्वतंत्र विकास का उल्लेख नहीं मिलता। इन दोनों का संयुक्त अस्तित्व बहुत दिनों तक बना रहा और इनको वैखानस, पर्व्राािट्, यति, मुनि, श्रमण आदि से अभिहित किया जाता था। वैदिक काल में कर्म तथा कर्मकांड की प्रधानता होने के कारण निवृत्तिमार्ग अथवा संन्यास को विशेष प्रोत्साहन नहीं था। वैदिक साहित्य के अंतिम चरण उपनिषदों में निवृत्ति और संन्यास पर जोर दिया जाने लगा और यह स्वीकार कर लिया गया था कि जिस समय जीवन में उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो उस समय से वैराग्य से प्रेरित होकर संन्यास ग्रहण किया जा सकता है। फिर भी संन्यास अथवा श्रमण धर्म के प्रति उपेक्षा और अनास्था का भाव था।
सुत्रयुग में चार आश्रमों की परिगणना होने लगी थी, यद्यपि उनके नामक्रम में अब भी मतभेद था। आपस्तंब धर्मसूत्र (२.९.२१.१) के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (=ब्रह्मचर्य), मौन तथा वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (३.२) में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रम बतलाए गए हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (७.१.२) में गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा पर्व्राािजक, इन चार आश्रमों का वर्णन किया है, किंतु आश्रम की उत्त्पति के संबंध में बतलाया है कि अंतिम दो आश्रमों का भेद प्रह्लाद के पुत्र कपिल नामक असुर ने इसलिए किया था कि देवताओं को यज्ञों का प्राप्य अंश न मिले और वे दुर्बल हो जाएँ (६.२९.३१)। इसका संभवत: यह अर्थ हो सकता है कि कायक्लेशप्रधान निवृत्तिमार्ग पहले असुरों में प्रचलित था और आर्यो ने उनसे इस मार्ग को अंशत: ग्रहण किया, परंतु फिर भी ये आश्रम उनको पूरे पंसद और ग्राह्य न थे।
बौद्ध तथा जैन सुधारणा ने आश्रम का विरोध नहीं किया, किंतु प्रथम दो आश्रमों-ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य-की अनिवार्यता नहीं स्वीकार की। इसके फलस्वरूप मुनि अथवा यतिवृत्ति को बड़ा प्रोत्साहन मिला और समाज में भिक्षुओं की अगणित वृद्धि हुई। इससे समाज तो दुर्बल हुआ ही, अपरिपक्व संन्यास अथवा त्याग से भ्रष्टाचार भी बढ़ा। इसकी प्रतिक्रिया और प्रतिसुधारण ई. पू. दूसरी सदी अथवा शुंगवंश की स्थापना से हुई। मनु आदि स्मृतियों में आश्रमधर्म का पूर्ण आग्रह और संघटन दिखाई पड़ता है। पूरे आश्रमधर्म की प्रतिष्ठा और उनके क्रम की अनिवार्यता भी स्वीकार की गई। 'आश्रमात् आश्रमं गच्छेत्' अर्थात् एक आश्रम से दूसरे आश्रम को जाना चाहिए, इस सिद्धांत को मनु ने दृढ़ कर दिया।
स्मृतियों में चारों आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। मनु ने मानव आयु सामान्यत: एक सौ वर्ष की मानकर उसको चार बराबर भागों में बांटा है। प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य है। इस आश्रम में गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना कर्तव्य है। इसका मुख्य उद्देश्य विद्या का उपार्जन और व अनुष्ठान है। मनु ने ब्रह्मचारी के जीवन और उसके कर्तव्यों का वर्णन विस्तार के साथ किया (अध्याय २, श्लोक ४१-२४४)। ब्रह्मचर्य उपनयन संस्कार के साथ प्रारंभ और समावर्तन के साथ समाप्त होता है। इसके पश्चात् विवाह करके मुनष्य दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में प्रवेश करता है। गार्हस्थ्य समाज का आधार स्तंभ है। जिस प्रकार वायु के आश्रम से सभी प्राणी जीते हैं उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम के सहारे अन्य सभी आश्रम वर्तमान रहते हैं (मनु. ३७७)। इस आश्रम में मनुष्य ऋषिऋण से वेद से स्वाध्याय द्वारा, देवऋण से यज्ञ द्वारा और पितृऋण से संतानोत्पत्ति द्वारा मुक्त होता है। इसी प्रकार नित्य पंचमहायज्ञों-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ-के अनुष्ठान द्वारा वह समाज एवं संसार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है। मनुस्मृत्ति के चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में गृहस्थ के कर्त्तव्यों का विवेचन पाया जाता है। आयु का दूसरा चतुर्थाश गार्हस्थ्य में बिताकर मनुष्य जब देखता है कि उसके सिर के बाल सफेद हो रहे हैं और उसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं तब वह जीवन के तीसरे आश्रम-वानप्रस्थ-में प्रवेश करता है। (मनु. ५, १६९)। निवृत्ति मार्ग का यह प्रथम चरण है। इसमें त्याग का आंशिक पालन होता है। मनुष्य सक्रिय जीवन से दूर हो जाता है, किंतु उसके गार्हस्थ्य का मूल पत्नी उसके साथ रहती है और वह यज्ञादि गृहस्थधर्म का अंशत: पालन भी करता है। परंतु संसार का क्रमश: त्याग और यतिधर्म का प्रारंभ हो जाता है (मनु.६)। वानप्रस्थ के अनंतर शांतचित्त, परिपक्व वयवाले मनुष्य का पार्व्राािज्य (संन्यास) प्रारंभ होता है।