: आकृती पूर्ण किजिए:
बुड्डी काकी को लड़के इस तरह सताते थे-
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यह कहानी कई वर्ष पुरानी है और आज जब मैं इस कहानी को लिख रही हूँ, तो मेरी उम्र 38-39 के आसपास है। कुछ था जो सालों से मेरे भीतर उथल-पुथल मचाए हुए था और चूंकि किसी से कह नहीं सकती थी तो यह पीड़ा और सालती थी मुझे। सोचा किसी जंगल में पेड़ के कान में या फिर किसी घोड़े के कान में अपनी कथा कहने से बेहतर है आपसे कहूँ।
कहानी 31 अक्तूबर 1984 के कुछ दिन पहले से शुरू होती है। नंदनगरी के एक मोहल्ले में हमारा घर था। बड़ा-सा आंगन और आंगन में एकदम किनारे ठीक पिछले दरवाज़े के पास अमरूद का पेड़। हमारा अमरूद का पेड़ इतना घना था कि उसका फैलाव बाहर गली तक जाता था। घर में हम कुल पांच सदस्य थे। पापा जी, मम्मी, बड़ा भाई बंटी उर्फ सुखदीप और उससे छोटा टोनी उर्फ मंदीप सिंह और सबसे छोटी मैं यानी हरप्रीत यानी प्रीतो। प्रीतो सिर्फ़ नाम से नहीं, सबकी लाडली भी थी मैं। हम तीन भाई-बहन बड़ी शैतानियाँ करते। पेड़ पर कच्चे-कच्चे अमरूद फलते ही तोड़ लेते और मम्मी के लाख डांटने पर भी भरी दुपहरी में पेड़ से अमरूद तोड़कर कच्चे ही खा लेते थे। अमरूद खाने से ज़्यादा लालच दूसरे के हाथ में पड़ने से बचाने का था। डाली क्योंकि बाहर तक थी, तो पड़ोस के रिंकी, मन्नू, राजू और राहगीरों की भी नज़र उस पर टिकी रहती थी। इसलिए उनसे बचाने के लालच में चाहे पेट दर्द ही क्यों न हो जाए, लेकिन हम तीनों उसे छोड़ते नहीं थे और फिर अमरूद खाने के बाद पेट दर्द होता, तो माँ कभी अजवाइन खिलाती, तो कभी पिटाई।
स्कूल जाते हुए भी हमारी शरारतें यूं ही चलती रहती थीं। बंटी वीर जी की पगड़ी की पूनी पापा जी करवाते और टोनी वीर जी की मम्मी और मैं खुद ही अपनी दोनों चोटियाँ गूंथ लेती थी, बस रिबन लगाने का काम मम्मी के जिम्मे रहता था। हम तीनों को स्कूल विदा करके ही दोनों को कुछ आराम मिलता और फिर मम्मी पापा जी के काम पर जाने की तैयारी करने लगती। पापा जी की अपनी तीन टेक्सियाँ थीं। पापा जी को दिल्ली में बसे अभी सोलह साल ही हुए थे। इन सोलह सालों में पंजाब से दिल्ली आए पापा जी ने अपनी लगन और मेहनत से ठीक-ठाक कमा लिया था। मम्मी-पापा जी जब दिल्ली आए तो उनकी गोद में छः-सात महीने का सुखदीप यानी बंटी वीर जी थे। पापा जी ने यहाँ आकर मजदूरी की, किराए के मकान में रहे, टेम्पो-टेक्सी चलाई और धीरे-धीरे पापा जी की मेहनत और मम्मी की समझ से दोनों ने अपनी पहली टेक्सी डाली और आज वाहेगुरू की कृपा से तीन टेक्सियाँ, नंद नगरी में बड़े से आंगन वाला अपना एक घर और तीन-तीन बच्चों वाली सुखी गृहस्थी थी उनकी।
हमारा बड़े से आंगन और बड़े से अमरूद के पेड़ वाला वह घर छोटी-छोटी खुशियों से भरा था। बंटी वीर जी ग्यारहवीं, टोनी वीर जी नौवंीं और मैं सातवंीं कक्षा में पढ़ रहे थे तब। पापा जी अक्सर कहते कि घर की मजबूरियों के चलते मैं तो कभी पढ़ नहीं पाया, लेकिन मेरे तीनों बच्चे ज़रूर पढ़ेंगे-लिखेंगे। पुरखों का नाम रोशन करेंगे।
मैं अपने पापा जी की बहुत लाडली थी। स्कूल में मेरा नाम हरप्रीत, पड़ोस की सहेलियों के लिए प्रीतो, भाइयों के लिए प्रीतो माई और पापा जी के लिए लाडो पुतर था। पापा जी ने मुझे कभी हरप्रीत या प्रीतो कहकर पुकारा हो, मुझे याद नहीं आता। बंटी और टोनी वीर जी जब मुझे 'प्रीतो माई बड़ी सयाणी, लगदी पूरी बुड्डी नानी' कहकर चिढ़ाते, तो पापा जी उन्हें बहुत डांटते।
हमारा पूरा मोहल्ला पंजाबियों और हिन्दुओं का था, जिसमें कुछ घर सिक्खों के थे। पंजाबी यानी पंजाब के हिन्दू परिवार। लोहड़ी-दीवाली पर हमारी गली में खूब रौनक लगती। गली के कई परिवारों ने मिलकर, जिसमें सिक्ख, हिंदू और पंजाबी परिवार थे, एक सांझा चूल्हा बना रखा था। सांझा चूल्हा यानी सांझा तंदूर, जो गली के सभी परिवारों के सहयोग से बना था। शाम ढलते ही चूल्हे पर औरतों की भीड़ लग जाती। अपनी-अपनी परातों में गंुथा आटा लेकर वे इकट््ठी होतीं और रोटी बनाने के बहाने न जाने कितना कुछ आपस में बांटतीं। सांझे चूल्हे की इन शामों को कभी औरतों के ठहाके गूंजते तो कभी चूल्हे से उठते धुंए में वे अपने आंसू छिपातीं और बहातीं अपने दुख-सुख सांझे करतीं।
पापा जी की टेक्सी कई लोगों के काम आती। कभी कोई बीमार पड़ गया, तो उसे लेकर अस्पताल भागने में और कभी किसी को आने में देर हो जाए, तो उसे ढूँढने को निकलती यह टेक्सी वहाँ नफे-नुकसान की सोच से परे पूरी तरह उस गली, उस मोहल्ले की सांझी हो जाती, ठीक उस सांझे चूल्हे की तरह। सांझे चूल्हे से निकलती गरम-गरम रोटी पर महकते घी की तरह खुशियों से महकता था हमारा वह मोहल्ला और मोहल्ले में हमारा घर। हर इतवार को मम्मी-पापा जी के साथ हम सब भाई-बहन बंगला साहब गुरुद्वारे जाते और हर सक्रांति पर पापा जी की तीनों टेक्सियों में हमारा मोहल्ला सवार होता दमदमा साहब गुरुद्वारे जाने के लिए। गुरुद्वारे में मत्था टेकते मम्मी-पापा जी उस वाहेगुरू का बार-बार शुक्रिया अदा करते और हम बच्चों पर अपनी रहमत बनाए रखने की उससे गुजा़रिश करते। मोहल्ले के और बच्चों के साथ हमें खेलने को मिल जाता और गुरुद्वारे के बड़े से आंगन में हम खूब शरारतें करते। लाइन में बार-बार लगकर कड़ाह प्रसाद खाते और छक कर लंगर खाते। फिर बड़े-बुज़ुर्ग गुरुद्वारे की सेवा में अपना दिन सार्थक समझते और हम सब धमा चैकड़ी में।
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