'आखिरी चट्टान' पाठ में सूयॉसत का सुदंर चित्रात्मकत वर्णन है। आपने भी सूरज को डूबते हुए देखा होगा उसका वर्णन अपने शब्दों में कीजिए ।
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘आख़िरी चट्टान तक’ बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त है। दिसम्बर १९५२ से फ़रवरी १९५३ के बीच मोहन राकेश ने गोआ से कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी। इस यात्रा के बिम्ब और संस्मरण उनके मन में संचित हो गए थे। कथाकार राकेश ने इस संचित सामग्री को मनुष्य, प्रकृति और विराट जीवन के विवेचन की तरह अपनाते हुए ‘आख़िरी चट्टान तक’ की रचना की है। यात्रा के दौरान उत्पन्न स्वाभाविक ‘अतिरिक्त भावुकता’ लिखते समय तटस्थता में परिवर्तित हुई और मोहन राकेश ने यात्रा का गत्यात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया। पुस्तक पढ़ते समय अनुभव होता रहता है कि हम एक विलक्षण बुद्धिजीवी की बाह्य और अन्तर्यात्रा के सहपथिक हैं।
मोहन राकेश जीवन के जिन बिम्बों को रचना में प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते हैं, उनके कुछ संवेदनशील उदाहरण ‘आख़िरी चट्टान तक’ में प्राप्त होते हैं। मानव मनोविज्ञान और सामाजिक संरचना की सूक्ष्म समझ के कारण यह यात्रावृत्तान्त भौतिक विवरण और आन्तरिक व्याख्या का निदर्शन बन गया है। हिन्दी साहित्य मे ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ की कमी अनुभव की जाती है। मोहन राकेश अपने इस वृत्तान्त में यात्री, यायावर और घुमक्कड़ की भूमिका में एक साथ दिखाई देते हैं। ‘वांडर लस्ट’ पर विचार करते हुए वे कहते हैं–‘यायावर वृत्ति ? परन्तु वृत्ति लस्ट तो नहीं है। और वास्तव में यह भटकन क्या लस्ट ही है ?’ राकेश ने इन विवरणों में बहुरंगी जीवन को चित्रित किया है। भाषा इतनी पार्दर्शी है कि लेखक के अनुभव पाठक के अनुभव में रूपान्तरित होने लगते हैं।
प्रस्तुत है ‘आख़िरी चट्टान तक’ का पुनर्नवा संस्करण।
गोआ से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा दिसम्बर सन् बावन और फ़रवरी सन् तिरपन के बीच की गयी थी। यात्रा से लौटते ही मैंने यह पुस्तक लिख डाली थी। उन दिनों हर चीज़ की छाप मन पर ताज़ा थी। पूरे अनुभव को लेकर मन में एक उत्साह भी था। इसलिए कहीं–कहीं अतिरिक्त भावुकता से अपने को नहीं बचा सका था। इस बार नये संस्करण के लिए पुस्तक को दोहराते समय पहले सोचा था कि मुद्रण की भूलों को ठीक करने के अतिरिक्त और इसमें कुछ नहीं करूँगा। परन्तु समय के अन्तराल ने जहाँ प्रभावों को कुछ धुँधला दिया है, वहाँ मन में उनके प्रति एक तटस्थता भी ला दी है। इसलिए कुछ जगह थोड़ा-बहुत परिवर्तन अनायास ही हो गया है। पुस्तक का कुछ अंश मैंने फिर से लिखा है। शेष में भाषा को जहाँ-तहाँ से छू दिया है। फिर भी मूलतः किसी तरह का परिवर्तन इसमें नहीं हुआ। वह न तो उचित ही था, न अपेक्षित ही।
पहले संस्करण में ही कुछ जगह व्यक्तियों के नाम मैंने बदल दिये थे। जहाँ सम्भव था, वहाँ नाम नहीं बदले। भास्कर कुरुप उस व्यक्ति का वास्तविक नाम है। श्रीधरन् एक बदला हुआ नाम |
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सूर्यास्त के समय सभी पक्षी घोसलों में जाना प्रारंभ कर देते हैं।
वह दिनभर की थकान को निकालने के लिए तैयार हो जाते हैं। आकाश में लाल, पीले तथा संतरी रंग बिखर जाते हैं।
दूर से अस्त होता सूर्य भगवान के मस्तक के पीछे बने चक्र के समान प्रतीत होता है।
शाम घिर आती है और आकाश सिलेटी रंग का होने लगता है।
सूर्य का आकार बहुत बड़ा दिखाई देने लगता है तथा उसे नंगी आँखों से देखने में परेशानी नहीं होती है।
समुद्र तट पर सूर्यास्त का नज़ारा देखते ही बनता है।