आलसय मनुष्य का शत्रु पर निबंध short essay Hindi Alasya manushya ka shatru
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आजकल हो रहे बदलावों के कारण मनुष्य की जीवनशैली कुछ ऐसी तरह बदलती जा रही है की मनुष्य बहुत ही आलसी होता जा रहा है। हर छोटे-बड़े काम के लिए मनुष्य टेक्नोलॉजी पर निर्भर करता है, ऐसा इसलिए भी क्योंकि सहुलियत ही इतनी हो गई है। कुछ भी काम करना हो फोन के ज़रिए कुछ ही दर में हो जाता है, कहीं जाने की भी ज़रूरत नहीं।
इस आलस के कारण मनुष्य अपनी जीवनशैली को बर्बाद करता जा रहा है वह स्वयं के कामों के लिए औरों पर निर्भर रहता है और खुद हर काम करने से बचता है। यह आलस मनुष्य के शरीर और उसके जीवन के लिए एक विश है जो उसे धीरे-धीरे खत्म कर देता है।
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आलस्य मन का परम शत्रु है। शरीर को सजीव होते हुए भी निर्जीव समान बना देता है। जब स्फूर्ति, परिश्रम एवं उत्साह को अपनाया ही न जाए तो कर्मशील काया स्वयं शिथिल होने लगती है, और फिर आलस्य के कारण ऐसे व्यक्ति ने अपनी कमी खोज पाते हैं और न उसमें सुधार करने का कुछ प्रयत्न करते हैं। फलस्वरूप दिन जैसे-तैसे कटते। रहते हैं शरीर-यात्रा किसी तरह चलती रहती है, जिंदगी के दिन ज्यों-त्यों कटते रहते हैं। आलस्य की बुरी आदत उनके जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि नहीं लाती जो उन्हें समुन्नत कहलाने का श्रेय उपस्थित कर सके। जब यही आलस्य शरीर से आगे बढ़कर मन पर सवार होने लगता है तो प्रमाद’ कहलाता है। तब प्रमादी व्यक्ति को न अवनति अखरती है और न ही उन्नति के लिए उत्साह। यथास्थिति बने रहने से आलसी व्यक्तियों का चिंतन-स्तर संकुचित हो जाता है-न उसे कुछ सीखने की इच्छा होती है और न ही वह कोई ऐसी योजना बनाता है, जिससे उसकी उन्नति हो सके तथा वह समर्थ बन सके। ऐसे लोगों को जब कभी दीनता-हीनता का एहसास होता है तो किसी अन्य को व्यवधान मानकर दोषारोपण करने लगते हैं; न तो वे अपना ही कुछ भला कर पाते हैं न ही किसी की प्रेरणा लेकर अपना उद्धार करना चाहते हैं। आलस्य रूपी शत्रु उनके मन-मस्तिष्क पर इस तरह सवार हो जाता है कि वह केवल एक दृष्टिकोण और एकतरफा सोचने और विचारने के आदी हो जाते हैं। कहा जाता है कि गति का ही दूसरा नाम जीवन है। जिस मनुष्य के जीवन में गति नहीं है वह आगे नहीं बढ़ सकता, जहाँ पैदा हुआ है किसी दिन उसी स्थान पर अपनी अकर्मण्यता के कारण मर जाएगा। मानव जीवन संघर्षों की कहानी है, संघर्षों से ही सफलता का फल मिलता है। जो व्यक्ति संघर्ष से, श्रम से डर गया वह मानव नहीं है। उसकी तुलना प्रकृति की किसी भी सजीव वस्तु या प्राणी से नहीं की जा सकती। जो लोग पका-पकाया खाना चाहते हैं, वे हमेशा पंगु और निष्क्रिय रह जाते हैं।“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः” भाग्य, विधि-विधान, ईश्वरीय इच्छा, समय का फेर आदि बातें सोचकर वे संतोष कर लेते हैं। अवसाद एवं अचिंत्य चिंतन करते हुए किसी प्रकार जीवन के दिन पूरे करते हैं। अतः सदैव ध्यान रखना चाहिए कि आलस्य मनुष्य का ऐसा शत्रु है जो उसकी चिंतन-प्रक्रिया, बुधि एवं कर्मशीलता को पंगु बना देता है। आलस्य के इतने अनिष्टकारी प्रभावों को देखते हुए हमें चाहिए कि इसे कभी भी अपने ऊपर हावी न होने दें।