आम के आम गुठलियों के दाम इस कहावत के उपर एक कहानी लिखे । 250 words.
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हैं, कहावतें परंपराओं की कोख से जनमती हैं। शुभ-लाभ की हमारी सनातन परंपरा है। आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत पहले यदा-कदा चरितार्थ होती थी। लेकिन बाजारवाद और भूमंडलीकरण के दौर में यह कहावत आम हो गई है। अब ये बात अलग है कि यह कहावत उन किसानों पर लागू नहीं होती जो आम की फसल उगाते हैं। आम का व्यापार करने वाले खास लोगों के लिए जरूर यह बात आम हो गई लगती है।
सच तो यह है कि तेरी गजल हमदम
एक तस्वीर खासो-आम की है।
एक दिन घर के दरवाजे पर खडा सेल्समैन श्रीमती जी को समझा रहा था, मैडम, यह रैकेट बहुत अच्छा है, इसकी नेट में हल्का करंट दौडता है और मच्छर जैसे ही इसके कांटेक्ट में आता है, मर जाता है।
वो तो सब ठीक है कि मच्छर मर जाते हैं, लेकिन इससे हमारा क्या फायदा? श्रीमती जी ने सीधा सा प्रश्न कर डाला। स्पष्ट है-मच्छरों का मर जाना फायदे की बात नहीं। हमारा खून चूसना और दो हाथों के बीच आकर मर जाना मच्छर की नियति है। इसमें फायदा कहां? लेकिन द्वार-द्वार भटकता एमबीए इस बात को समझ गया, फायदा है न मैडम! आज आपको एक रैकेट के दाम में दो मिलेंगे। यह बात उन्हें कायदे की लगी, दोहरे फायदे की लगी और रैकेट खरीद लिए। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम, यानी दोहरा लाभ। इसमें हमारी श्रीमती जी की नीयत में खोट है- मैं नहीं मानता। मैं तो कहूंगा यह दोहरे लाभ की संस्कृति का असर है।
यूं तो हमारी संस्कृति अति प्राचीन है। हमें इस पर मान है। मानने वाले अभी भी परंपराओं से चिपके हैं। अभिमानी अपने स्वार्थ के अनुसार परंपराओं को तोड-मरोडकर स्वार्थसिद्धि में निमग्न हैं। उनका स्वार्थ सर्वोपरि है। ये सच है, मानव सदा से स्वार्थी रहा। इसी का नतीजा है कि वह विकास करता रहा, चाहे अपने लिए ही क्यों न हो। आज भी भागमभाग में लाभ सर्वोच्च है। बिना लाभ, कोई बात नहीं करता। अब तो यह धारणा भी बदलती नजर आ रही है। लोग दोहरे लाभ की बात हो तो घास डालते हैं। यूं तो घास विवादास्पद है। दोपायों ने घास के चरने में चौपायों से बाजी मार ली है। अब तो बस चलते रहिए और चरते रहिए। चरैवेति-चरैवेति.. चरने के लिए कमी नहीं है। हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति घूसखोरी से डरता है। पर बात यदि मुफ्तखोरी की हो तो थोडा विचार किया जा सकता है। यही तो है दोहरे लाभ की संस्कृति- आम के आम गुठलियों के दाम वाली बात। अब यह दोहरे लाभ की संस्कृति नई पीढी में भी नजर आने लगी है। नन्हा बालक रात में सोने के लिए तब तक नहीं जाता जब तक मां ये न कहे कि बेटा आ जाओ, मैं तुम्हें टॉफी दूंगी और बालक शर्त रखता है कि वह एक नहीं दो टॉफी लेगा, साथ में टीवी देखने देने का वादा भी। आज सभी इस संस्कृति से प्रभावित हैं।
आम सदैव से आम है, परेशान है और खास महिमामंडित। हालांकि खास के लिए आम खास होता है, क्योंकि आम ही उसे खास बनाता है। खैर, बात निकली है तो एक आम आदमी - अपने अभिन्न शर्मा जी से मिलाता हूं। एक दिन सुबह-सुबह आ टपके। मैं अभी नींद से ठीक से जागा भी नहीं था।
अरे इतनी सुबह कैसे आना हुआ? मैंने आश्चर्य व्यक्त किया, सब ठीक तो है?