आओ चले पहाड़ों पर अनुच्छेद
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Explanation:
पहाड़ आज भी दूर से ही मेरा मन आकर्षित कर लेते हैं। बचपन में जब मैं किसी दूर से ही किसी पहाड़ या ऊंचे टीले को देखता, तो ऐसा लगता, जैसे वे पहाड़ और टीले मुझे बुला रहे हैं। दो-चार मील की दूरी तक के रूखे-सूखे पहाड़ों तक तो कई बार सरपट भागकर मैं पहुंच भी जाया करता था। उन पर चढक़र जब मैं दूर तक फैले आस-पास के वातावरण को देखा करता, तो वास्तव में मुझे बड़ा अचरज और आनंद प्राप्त हुआ करता था। तब मेरे मन में प्रश्न उठा करता था, जिन ठंडे और हरे-भरे पहाड़ों की लोग चर्चा किया करते हैं, गर्मियों में वहां जाते हैं, वे पता नहीं किस प्रकार के होंगे? बचपन के सुकुमार क्षणों से उन पहाड़ों को देखने की इच्छा पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टियों में जाकर कहीं पूरी हो सकी।
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Answer:
पहाड़ आज भी दूर से ही मेरा मन आकर्षित कर लेते हैं। बचपन में जब मैं किसी दूर से ही किसी पहाड़ या ऊंचे टीले को देखता, तो ऐसा लगता, जैसे वे पहाड़ और टीले मुझे बुला रहे हैं। दो-चार मील की दूरी तक के रूखे-सूखे पहाड़ों तक तो कई बार सरपट भागकर मैं पहुंच भी जाया करता था। उन पर चढक़र जब मैं दूर तक फैले आस-पास के वातावरण को देखा करता, तो वास्तव में मुझे बड़ा अचरज और आनंद प्राप्त हुआ करता था। तब मेरे मन में प्रश्न उठा करता था, जिन ठंडे और हरे-भरे पहाड़ों की लोग चर्चा किया करते हैं, गर्मियों में वहां जाते हैं, वे पता नहीं किस प्रकार के होंगे? बचपन के सुकुमार क्षणों से उन पहाड़ों को देखने की इच्छा पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टियों में जाकर कहीं पूरी हो सकी। ऐसा हो पाना वास्तव में वह मेरे लिए नितांत नवीन और सुखद अनुभव था।
भारत में सुरम्य पहाड़ी स्थलों की कमी नहीं, मगर हमारे नगर दि ली से मसूरी सबसे निकटतम सुरम्य पहाड़ी स्थल है। मैंने पुस्तकों में भी पढ़ा और लोगों को कहते भी सुन रखा था, कि मसूरी पहाड़ों की रानी है। सो मई मास के अंतिम सप्ताह में जब परिवार के बड़े सदस्यों ने वहां जाने का कार्यक्रम बनाया, तो मेरा मन प्रसन्नता से उछल पड़ा। निश्चित दिन हम लोग अपनी पहाड़ी यात्रा पर चल दिए। देहरादून को मसूरी का प्रवेश द्वार कहा जाता है। वहां तक की यात्रा हमने रेल द्वारा की। यह यात्रा भी कम सुखद न थी। सूखा और गरम ही सही, देहरादून तक पहुंचने के लिए काफी घने पहाड़ी जंगलों का रास्ता पार करना पड़ता है। रेल यात्रा में अन्य परिवार के सदस्य जबकि ऊंघने लगे थे, मैं खुली आंखों से खिडक़ी के साथ लगा बाहर के प्राकृतिक दृश्य देखता जा रहा था। ऊंचे-ऊंचे सफेदे के पेड़, हरे-भरे पहाड़ी पठार, घने जंगल मन मोह लेते थे। मैं सोचता जा रहा था कि जिस मसूरी का रास्ता ही प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है, वह स्वंय कितनी सुंदर होगी। मेरी उत्सुकता निरंतर बढ़ती और विकसित होती गई।
देहरादून से आगे मसूरी तक की यात्रा हमने बस द्वारा पूरी की। रास्ता बड़ा ही घुमावदार था। अभी जहां बस होती, घूम-घामकर वहीं पहुंच जाती, पर इस बार पहले से ऊंची और ऊंची और इस प्रकार पहाड़ी मोड़ों, आस-पास के प्राकृतिक दृश्यों को देखकर विभोर होते हुए हम लोग पर्वतों की रानी मसूरी की गोद में जा पहुंचे। जहां तक वहां के नगरीय रास्तों-पहाड़ों का प्रश्न है, माल रोड ही मुख्य है। उसी के दोनों ओर नगर बसा है। बड़े-बड़े होटल, शिक्षा संस्थांए, सरकारी कार्यालय आदि सभी कुछ प्रमुखत: वहीं माल रोड पर ही स्थित हैं। भीतर जाने वाली गलियों-रास्तों पर भी बस्तियां हैं, होटल आदि भी हैं, पर माल रोड का तो कहना ही क्या। बस अड्डे से चलने पर माल रोड कुछ आड़ा-टेढ़ा होता हुआ ऊपर ही ऊपर चढ़ता या उठता जाता है। हम लोग जिस होटल में ठहरे, वह माल रोड पर ही था। उसके एक सिरे पर काफी चढ़ाई चढऩे के बाद वहां तक पहुंचना पड़ा। जब पहुंचे, तो कुछ-कुछ धूप निकल रही थी। मैंने नीचे घाटी में जब खिडक़ी से झुककर देखा, तो लगा जैसे वहां धुआं-ही-धुआं भरने लगा है। मैं चकित सा देखता रह गया। देखते-ही-देखते उस धुंए ने ऊपर उठकर सूर्य को ढक लिया। फिर मुझे लगा, जैसे धुएं के कुछ टुकड़े उड़ते हुए हमारी खिडक़ी की ओर आ भीतर घुस आना चाहते हैं। यह देख मैं एकाएक चिल्ला उठा अपने बड़े भाई को पुकारते हुए- ‘देखिए भैया, यह धुआं भीतर घुस आना चाहता है।’ तब मुस्कराकर भैया ने बताया ‘यह धुआं नहीं, बादल है। शांत रहो, भीतर नहीं घुसेंगे।’ और दो क्षण बाद ही रिमझिम वर्षा शुरू हो गई। धुआं बादल और पानी बनकर बरस गया। उस बरसते पानी में सारी घाटी एक अजीब सा सुहावना दृश्य उपस्थित करने लगी। उस बरसते पानी में सारी घाटी एक अजीब सा सुहावना दृश्य उपस्थित करे लगी। कुछ देर बाद पानी थम गया। मैंने देखा, घाटी यहां तक कि माल रोड भी सफेद-सफेद कोहरे के गोलों से पटा पड़ा है। इस प्रकार पहला स्वागत बड़ा ही मोहक था। यह अनुभव वास्तव में मेरे लिए रोमांचकारी था। मेरी स्मृति में आज भी यह रोमांच ज्यों का त्यों बसा हुआ है।
वहां प्रतिदिन ही प्राय: ऐसा होता। पता नहीं, कब बादल आकर बरस जाते और कब धूप निखर आती। शाम को माल रोड पर रंग-बिरंगे लोगों की भीड़, उनकी आनंदभरी चिलगोइयां, सभी कुछ मन को मोह लेता। हम लोग वहां से कुछ दूर पर स्थित धोबी घाट के चश्मों ओर कॉप्टी फॉल को भी देखने गए। कॉप्टी फॉल तक पैदल-पथ की सीधी चढ़ाई-उतराई कुछ खतरनाग होते हुए भी बड़ी आनंददायक थी। हमने एक शाम वहां बने बुद्ध पार्क में बिताई और भी सभी दर्शनीय स्थल देखे। मौसम बड़ा सुहावना रहता। रात को तो कंबल-रजाई अवश्य ओढक़र सोना पड़ा, पर दिन में अधिक से अधिक गरम स्वेटर से ही काम चल जाता। भूख तो इतनी लगती कि अभी-अभी खाया और कुछ देर बाद फिर खाने की इच्छा हो आती। हडि़्डयों तक को कंपा देने वाले चश्मों और झरनों के पानी में नहाने का आनंद ही निराला था। इस प्रकार पता ही नहीं लगा कि एक महीना बीत गया और हम वापिस आ गए। दिल्ली में फिर वही गर्मी-लू, धूल-धप्पड़। उस सबको सहने के लिए पहले जैसी ही विवशता थी। यहीं पर रहना जो था।
वापिस आकर कुछ दिनों तक गर्मी का प्रकोप हर क्षण मसूरी की याद दिलाता रहा। परंतु जीवन का क्रम, भला व्यक्ति सदा मनचाहा कहां कर पा सकता है? हां, आज भी स्मृतियों में मैं कई-कई बार अपनी इस पहली पहाड़ी-यात्रा का आनंद भोग लिया करता हूं। मन-मस्तिष्क घुमावदार रास्ते पार कर मसूरी की माल रोड पर घूम, उस यात्रा की यादें दोहराकर आनंदित हो लिया करते हैं। सच, बड़ी जालिम हुआ करती हैं ये स्मृतियां भी।