आपे बसै जामैं ताहि कैसे के बिसारिए॥२॥
यह संग में लागियै डोलैं, सदा, बिन देखे न धीरज आनती हैं?
छिनहू जो वियोग परै 'हरिचंद', तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं?
बरुनी में थिरै न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अँखियाँ, दुखियाँ नहिं मानती हैं॥ ३॥
पहिले बहु भाँति भरोसो दियो, अब ही हम लाइ मिलावती हैं।
'हरिचंद' भरोसे रही उनके, सखियाँ जो हमारी कहावती हैं।
अब वेई जुदा है रहीं हम सों, उलटो मिलि कैं समुझावती हैं।
पहिले तो लगाई कै आग अरी! जल कों अब आपुहिं धावती हैं॥ ४
ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।
ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मण्डली ही बिगरी है।
एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए, कूप ही में यहाँ भाँग परी है।
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what to do? ?? .? ..? .? .? .? ?. ?. .
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