आप दो पीढ़ियों के बीच किस रूप में सामंजस्य स्थापित करना चाहेंगे- स्पष्ट कीजिए
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पुरानी और नई पीढ़ी में टकराव क्यों?
यह समस्या कोई नई नहीं है। मुझे यकीन है कि गुफा मानव के दौर में भी ऐसा होता होगा। सवाल यह है कि इससे निपटा कैसे जाए?
प्रश्न: सद्गुरु, आज की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच एक विषमता है, एक अजीब सा मतभेद है। यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि बड़ी उम्र का अनुभव और यौवन का जोश मिल कर साथ काम करें?
सद्गुरु: नई और पुरानी पीढ़ी के बीच आज ही नहीं, बल्कि हमेशा से विषमता रही है। इन दोनों के बीच असली समस्या है कि पुरानी पीढ़ी यह नहीं समझती कि उनकी उम्र ढल गई है और युवा पीढ़ी ये समझती है कि अब वे काफी बड़े हो गए हैं, उनकी उम्र इतनी हो गई है कि वे सबकुछ कर सकते हैं। दोनों के बीच सारी समस्या ही यही है। कोई और उस जगह पर कब्जा जमाए हुए है जिसे आप हासिल करना चाहते हैं। ऐसा सिर्फ इंसानों में ही नहीं होता। खासकर, हाथियों में भी यह चीज देखने को मिलती है। कभी अचानक आप देखेंगे कि एक जवान भरा-पूरा हाथी हर तरफ भाग रहा है, नाराज होकर वह हर चीज खींच रहा है, गिरा रहा है, क्योंकि उसकी लड़ाई अपने झुंड के किसी बड़े नर हाथी से हुई होती है। चूंकि वह बड़ा हाथी अपनी जगह नहीं छोड़ रहा होता, इसलिए यह युवा हाथी उससे लडऩे की कोशिश करता है। नौजवान हाथी लड़ नहीं पाता, क्योंकि उसमें उस बड़े नर हाथी से लडऩे की ताकत नहीं होती, इसलिए वह जोश में आकर अपने तेवर दिखाता है।
वर्णाश्रम धर्म
इसीलिए इस देश में वर्णाश्रम धर्म की कल्पना की गई। इसमें जन्म से लेकर बारह साल तक बाल्यावस्था होता है। जहां सिर्फ खेलना होता है। बस शरीर व दिमाग का विकास होना चाहिए। बारह से चौबीस साल तक ब्रह्मचर्य रहता है। यह समय अनुशासन का है, जिसमें आपको खुद को अनुशासित करने की, अपने शरीर में, अपने दिमाग में अनुशासन लाने की जरूरत होती है, फिर अपनी ऊर्जा को विकसित करने की जरूरत होती है, ताकि आप एक शक्तिशाली और ज्ञानवान इंसान बन सकें। चौबीस साल की उम्र आने पर आप चयन करते हैं – अगर आप जीवन को वैसे ही देखते हैं, जैसा यह है तो आपको फिर कुछ और करने की जरूरत नहीं है। आप अगर इसके आर-पार देख सकते हैं तो आप इसी उम्र में संन्यासी बन सकते हैं। वर्ना आपको एक गृहस्थ बनना होगा। आप शादी करेंगे। तो अगर आप चौबीस साल की उम्र में शादी करते हैं तो आपके दो सौर चक्र, यानी अगले चौबीस साल इसी में निकल जाएंगे और तब आप अड़तालीस साल के होंगे। इसका मतलब हुआ कि आपके बच्चे इस उम्र तक अठारह से लेकर बीस-बाइस की उम्र के बीच कहीं होंगे। वे सब नौजवान बैल की तरह होंगे, जो चाहते होंगे कि आप चले जाएं, लेकिन कह नहीं पाते। लेकिन आज के आधुनिक दौर में हम बच्चों को दूर भेजते हैं, हम खुद बाहर नहीं जाते। हम उन्हें दूर कहीं और भेज देते हैं। इन शरण-स्थलियों को हम यूनिवर्सिटी कहते हैं। या फिर हम उन्हें कहीं और भेज देते हैं।
जब आपकी अपनी जमीन व जानवर गांवों में हों तो आप गांव या घर छोडक़र कहीं दूर जाकर अपना जीवन नहीं बिता सकते थे।
लेकिन पहले जीवन खेती के इर्द-गिर्द ही हुआ करता था, इसलिए तब घर छोडक़र दूर नहीं जाया जा सकता था। जब आपकी अपनी जमीन व जानवर गांवों में हों तो आप गांव या घर छोडक़र कहीं दूर जाकर अपना जीवन नहीं बिता सकते थे। लेकिन किसी को तो बाहर जाना ही होता था तो अड़तालीस साल के बुजुर्ग दंपति यानी मां-बाप संन्यास लेकर अलग-अलग दिशाओं में जाया करते थे। पति एक जगह जाता तो पत्नी दूसरी जगह जाती और फिर अगले बारह साल वे लोग आध्यात्मिक साधना में लगा देते थे। साठ साल की उम्र में वे फिर वापस लौटते थे और विवाह करते थे। आज वे कहीं दूर नहीं जाते, दोनों साथ ही रहते हैं, फिर भी साठ साल की उम्र में एक बार फिर शादी करते हैं। इसके लिए पहले आपको बारह साल के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत है। पहली बार जब आपने शादी की थी तो कुछ बाध्यताएं रही होंगी – शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या कुछ और तरह की। अब वे सारी चीजें खत्म हो चुकी हैं। आपने बारह साल तक आध्यात्मिक साधना की और अब अगर साथ आए हैं तो बिल्कुल दूसरी तरह से। अब आप वानप्रस्थ जाएंगे, जिसका मतलब है कि आप जंगल में जाएंगे, जहां आप अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करेंगे।
क्या है उपाय?
तो यह समस्या कोई नई नहीं है। मुझे यकीन है कि गुफा मानव के दौर में भी ऐसा होता होगा। सवाल आता है कि हम इससे निपटें कैसे? इस स्थिति से निपटने का तरीका है कि बुजुर्गों यानी बड़ों को खुद को पीछे रखना सीखना होगा, जिससे नौजवान उस जगह को ले सकें। बड़ों को सिर्फ एक काम करना होगा कि जहां नौजवान बड़ों से भय खाते हों, डरते हों, वहां उन्हें खास स्तर की समझदारी और अनुभव दिखाना होगा। अगर आप यह नहीं करेंगे तो नौजवान आपकी अवहेलना या उपेक्षा करेंगे और आपके साथ कई तरीके से टकरावभरा व्यवहार कर सकते हैं। तो जैसे-जैसे आप बुजुर्ग होते हैं, वैसे-वैसे आपको यह बात सीखनी चाहिए। आपने जीवन में एक खास तरह की समझदारी और सूझबूझ हासिल की है, जिसे अगली पीढ़ी को हासिल करना बाकी है और इसीलिए वह जरुरत के समय आपकी ओर देखते हैं। तब आप उनका साथ दे सकते हैं, हां एक खास स्तर की दूरी या कहें ऊंचाई बनाते हुए। एक तरह से अगर वे पहली मंजिल पर हों तो आप पहली मंजिल उनके लिए खाली कर दीजिए और दूसरी मंजिल पर रहते हुए उनका मार्गदर्शन कीजिए। अगर उनके पास ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसके समाधान के लिए वे आपकी तरफ देखें और दूसरी तरफ अगर आप अपनी समस्याएं लेकर उनके सामने आते रहेंगे और अपनी बेतुकी बातें करते रहेंगे तो बेहतर होगा कि आप वानप्रस्थ ले लीजिए।
मैं जानता हूं कि आपको अपने प्रश्न के ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। लेकिन मैं क्या करूं? मैं कोई राजनेता तो हूं नहीं, जो सिर्फ आपकी मनपसंद बात कहे। मैं तो वही कहूंगा, जो सच होगा।
यह समस्या कोई नई नहीं है। मुझे यकीन है कि गुफा मानव के दौर में भी ऐसा होता होगा। सवाल यह है कि इससे निपटा कैसे जाए?
प्रश्न: सद्गुरु, आज की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच एक विषमता है, एक अजीब सा मतभेद है। यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि बड़ी उम्र का अनुभव और यौवन का जोश मिल कर साथ काम करें?
सद्गुरु: नई और पुरानी पीढ़ी के बीच आज ही नहीं, बल्कि हमेशा से विषमता रही है। इन दोनों के बीच असली समस्या है कि पुरानी पीढ़ी यह नहीं समझती कि उनकी उम्र ढल गई है और युवा पीढ़ी ये समझती है कि अब वे काफी बड़े हो गए हैं, उनकी उम्र इतनी हो गई है कि वे सबकुछ कर सकते हैं। दोनों के बीच सारी समस्या ही यही है। कोई और उस जगह पर कब्जा जमाए हुए है जिसे आप हासिल करना चाहते हैं। ऐसा सिर्फ इंसानों में ही नहीं होता। खासकर, हाथियों में भी यह चीज देखने को मिलती है। कभी अचानक आप देखेंगे कि एक जवान भरा-पूरा हाथी हर तरफ भाग रहा है, नाराज होकर वह हर चीज खींच रहा है, गिरा रहा है, क्योंकि उसकी लड़ाई अपने झुंड के किसी बड़े नर हाथी से हुई होती है। चूंकि वह बड़ा हाथी अपनी जगह नहीं छोड़ रहा होता, इसलिए यह युवा हाथी उससे लडऩे की कोशिश करता है। नौजवान हाथी लड़ नहीं पाता, क्योंकि उसमें उस बड़े नर हाथी से लडऩे की ताकत नहीं होती, इसलिए वह जोश में आकर अपने तेवर दिखाता है।
वर्णाश्रम धर्म
इसीलिए इस देश में वर्णाश्रम धर्म की कल्पना की गई। इसमें जन्म से लेकर बारह साल तक बाल्यावस्था होता है। जहां सिर्फ खेलना होता है। बस शरीर व दिमाग का विकास होना चाहिए। बारह से चौबीस साल तक ब्रह्मचर्य रहता है। यह समय अनुशासन का है, जिसमें आपको खुद को अनुशासित करने की, अपने शरीर में, अपने दिमाग में अनुशासन लाने की जरूरत होती है, फिर अपनी ऊर्जा को विकसित करने की जरूरत होती है, ताकि आप एक शक्तिशाली और ज्ञानवान इंसान बन सकें। चौबीस साल की उम्र आने पर आप चयन करते हैं – अगर आप जीवन को वैसे ही देखते हैं, जैसा यह है तो आपको फिर कुछ और करने की जरूरत नहीं है। आप अगर इसके आर-पार देख सकते हैं तो आप इसी उम्र में संन्यासी बन सकते हैं। वर्ना आपको एक गृहस्थ बनना होगा। आप शादी करेंगे। तो अगर आप चौबीस साल की उम्र में शादी करते हैं तो आपके दो सौर चक्र, यानी अगले चौबीस साल इसी में निकल जाएंगे और तब आप अड़तालीस साल के होंगे। इसका मतलब हुआ कि आपके बच्चे इस उम्र तक अठारह से लेकर बीस-बाइस की उम्र के बीच कहीं होंगे। वे सब नौजवान बैल की तरह होंगे, जो चाहते होंगे कि आप चले जाएं, लेकिन कह नहीं पाते। लेकिन आज के आधुनिक दौर में हम बच्चों को दूर भेजते हैं, हम खुद बाहर नहीं जाते। हम उन्हें दूर कहीं और भेज देते हैं। इन शरण-स्थलियों को हम यूनिवर्सिटी कहते हैं। या फिर हम उन्हें कहीं और भेज देते हैं।
जब आपकी अपनी जमीन व जानवर गांवों में हों तो आप गांव या घर छोडक़र कहीं दूर जाकर अपना जीवन नहीं बिता सकते थे।
लेकिन पहले जीवन खेती के इर्द-गिर्द ही हुआ करता था, इसलिए तब घर छोडक़र दूर नहीं जाया जा सकता था। जब आपकी अपनी जमीन व जानवर गांवों में हों तो आप गांव या घर छोडक़र कहीं दूर जाकर अपना जीवन नहीं बिता सकते थे। लेकिन किसी को तो बाहर जाना ही होता था तो अड़तालीस साल के बुजुर्ग दंपति यानी मां-बाप संन्यास लेकर अलग-अलग दिशाओं में जाया करते थे। पति एक जगह जाता तो पत्नी दूसरी जगह जाती और फिर अगले बारह साल वे लोग आध्यात्मिक साधना में लगा देते थे। साठ साल की उम्र में वे फिर वापस लौटते थे और विवाह करते थे। आज वे कहीं दूर नहीं जाते, दोनों साथ ही रहते हैं, फिर भी साठ साल की उम्र में एक बार फिर शादी करते हैं। इसके लिए पहले आपको बारह साल के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत है। पहली बार जब आपने शादी की थी तो कुछ बाध्यताएं रही होंगी – शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या कुछ और तरह की। अब वे सारी चीजें खत्म हो चुकी हैं। आपने बारह साल तक आध्यात्मिक साधना की और अब अगर साथ आए हैं तो बिल्कुल दूसरी तरह से। अब आप वानप्रस्थ जाएंगे, जिसका मतलब है कि आप जंगल में जाएंगे, जहां आप अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करेंगे।
क्या है उपाय?
तो यह समस्या कोई नई नहीं है। मुझे यकीन है कि गुफा मानव के दौर में भी ऐसा होता होगा। सवाल आता है कि हम इससे निपटें कैसे? इस स्थिति से निपटने का तरीका है कि बुजुर्गों यानी बड़ों को खुद को पीछे रखना सीखना होगा, जिससे नौजवान उस जगह को ले सकें। बड़ों को सिर्फ एक काम करना होगा कि जहां नौजवान बड़ों से भय खाते हों, डरते हों, वहां उन्हें खास स्तर की समझदारी और अनुभव दिखाना होगा। अगर आप यह नहीं करेंगे तो नौजवान आपकी अवहेलना या उपेक्षा करेंगे और आपके साथ कई तरीके से टकरावभरा व्यवहार कर सकते हैं। तो जैसे-जैसे आप बुजुर्ग होते हैं, वैसे-वैसे आपको यह बात सीखनी चाहिए। आपने जीवन में एक खास तरह की समझदारी और सूझबूझ हासिल की है, जिसे अगली पीढ़ी को हासिल करना बाकी है और इसीलिए वह जरुरत के समय आपकी ओर देखते हैं। तब आप उनका साथ दे सकते हैं, हां एक खास स्तर की दूरी या कहें ऊंचाई बनाते हुए। एक तरह से अगर वे पहली मंजिल पर हों तो आप पहली मंजिल उनके लिए खाली कर दीजिए और दूसरी मंजिल पर रहते हुए उनका मार्गदर्शन कीजिए। अगर उनके पास ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसके समाधान के लिए वे आपकी तरफ देखें और दूसरी तरफ अगर आप अपनी समस्याएं लेकर उनके सामने आते रहेंगे और अपनी बेतुकी बातें करते रहेंगे तो बेहतर होगा कि आप वानप्रस्थ ले लीजिए।
मैं जानता हूं कि आपको अपने प्रश्न के ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। लेकिन मैं क्या करूं? मैं कोई राजनेता तो हूं नहीं, जो सिर्फ आपकी मनपसंद बात कहे। मैं तो वही कहूंगा, जो सच होगा।
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