Hindi, asked by smitamotiwale1983, 4 months ago

आपके पसंदिदा साहित्य प्रकार के बारे में जानकारी लिखिए।​

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Answered by parisbabu79
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Answer:

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। साहित्य - स+हित+य के योग से बना है


smitamotiwale1983: thanks bro
smitamotiwale1983: i need more answer
parisbabu79: welcome but
parisbabu79: i am not a boy !hehehe
parisbabu79: but i think it is wrong☠
Answered by 91101119
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Answer:

अपने एक लेख में प्रेमचंद बताते हे की जीवन में साहित्य का क्या महत्व हे ? क्या स्थान हे क्यों हे ? आज की भागती दौड़ती जिंदगी में इंसान किसी चीज़ से सबसे ज़्यादा दूर हो रहा हे तो साहित्य भी हे इसके दुष्परिणाम भी साफ़ तौर पर देखे जा सकते हे लोगो की अच्छा कहने सुनने की एक दुसरे को समझने की रोचक बातचीत की क्षमता कम हो रही हे कारण साफ़ हे की दिमाग और मन दोनों की ही खुराक पढ़ना और साहित्य होता ही हे टी वी इंटरनेट और दुसरे माध्यम जीवन में साहित्य का स्थान बिलकुल नहीं ले सकते हे प्रेमचंद बड़े ही सुन्दर शब्दों में बताते हे की जीवन में साहित्य का क्या महत्व हे ?

”साहित्य का आधार जीवन हे इसी नीव पर साहित्य की दीवार कड़ी होती हे उसकी अटारिया मीनार और गुम्बंद बनते हे लेकिन बुनियाद मिटटी के नीचे दबी पड़ी हे उसे देखने का भी जी नहीं चाहेगा जीवन परमात्मा की सर्ष्टि हे इसलिए अंनत हे , अगम्य हे साहित्य मनुष्य की सर्ष्टि हे इसलिए सुबोध हे सुगम और मर्यादा से परिमित हे जीवन परमात्मा को अपने कामो का जवाबदेह हे या नहीं , हमें मालूम नहीं लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह हे इसके लिए कानून हे जिससे वह इधर उधर नहीं हो सकता हे ”

”जीवन का उद्देश्य ही आनंद हे मनुष्य जीवन पर्यन्त आनंद की खोज में लगा रहता हे किसी को वह रत्न द्र्वय धन से मिलता हे किसी को भरे पुरे परिवार से किसी को लम्बा चौड़े भवन से , किसी को ऐश्वर्य से , लेकिन साहित्य का आनंद इस आनंद से ऊँचा हे , इससे पवित्र हे , उसका आधार सुन्दर और सत्य हे वास्तव में सच्चा आनंद सुन्दर और सत्य से मिलता हे उसी आनंद को दर्शाना वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देशय हे , ऐश्वर्य आनंद में ग्लानि छिपी होती हे . उससे अरुचि हो सकती हे पश्चाताप की भावना भी हो सकती हे पर सुन्दर से जो आनंद प्राप्त होता हे वह अखंड अमर हे .” ” जीवन क्या हे – ? जीवन केवल जिन खाना सोना और मर जाना नहीं हे . यह तो पशुओ का जीवन हे मानव जीवन में भी यही सब प्रवृत्तियाँ होती हे क्योकि वह भी तो पशु हे पर उसके उपरांत कुछ और भी होता हे उसमे कुछ ऐसी मनोवृत्तियां होती हे जो प्रकर्ति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हे जो इस मेल में सहायक बन जाती हे जिन प्रवृत्तियाँमें प्रकर्ति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता हे वह वांछनीय होती हे जिनमे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती हे , वे दूषित हे . अहंकार क्रोध या देष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हे . यदि हम इन्हे बेरोकटोक चलने दे तो निसंदेह वो हमें नाश और पतन की और ले जायेगी इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती हे उन पर सायं रखना पड़ता हे . जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सके हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हे उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता हे ”

” साहित्य ही मनोविकारों के रहस्यों को खोलकर सद्वृत्तियो को जगाता हे साहित्य मस्तिष्क की वस्तु बल्कि ह्रदय की वस्तु हे जहा ज्ञान और उपदेश असफल हो जाते हे वह साहित्य बाज़ी मार ले जाता हे साहित्य वह जादू की लकड़ी हे जो पशुओ में ईट पत्थरों में में पेड़ पौधों में विश्व की आत्मा का दर्शन करा देता हे ”

”जीवन मे साहितय की उपयोगिता के विष्य मे कभी कभी संदेह किया जाता हे कहा जाता हे की जो स्वभाव से अच्छे हे वो अच्छे ही रहेंगे चाहे कुछ भी पढ़े जो बुरे हे वो बुरे ही रहेंगे चाहे कुछ भी पढ़े . इस कथन मे सत्‍य की मात्रा बहुत कम हे इसे सत्य मान लेना मानव चरित्र को बदल देना होगा मनुष्य सवभाव से देवतुल्य हे जमाने के छल प्रपंच या परीईस्थितियो से वशीभूत होकर वह अपना देवत्य खो बेठता हे . साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्टित करने की चेष्टा करता हे उपदेशो से नहीं,नसीहतो से नहीं भावो से मन को स्पंदित करके , मन के कोमल तारो पर चोट लगाकर प्रकर्ति से सामंजस्य उत्पन्न करके . हमारी सभ्यता साहित्य पर ही आधारित हे . हम जो कुछ हे साहित्य के ही बनाय हे विश्व की आत्मा के अंतर्गत राष्ट्र या देश की आत्मा एक होती हे इसी आतमा की प्रतिध्‍वनि हे ‘ साहित्य ‘ ”

”भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग हे किसी राष्ट्र की सबसे मूलयवान संपत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हे व्यास और वाल्मीकि ने जिन आदर्शो की सर्ष्टि की वो आज भी भारत का सर ऊँचा किये हुए हे राम अगर वाल्मीकि के सांचे में न ढलते तो राम न रहते .यह सत्य हे की हम सब ऐसे चरित्रों का निर्माण नहीं कर सकते पर धन्वन्तरि के एक होने पर भी इस संसार में वैद्दो की आवशयकता हे और रहेगी ” कलम हाथ में लेते ही हमारे सर पर भारी जिम्मेदारी आ जाती हे . साधारणतः युवावस्था में हमारी पहली निगाह विध्वंस की और ही जाती हे हम यथार्थ वाद के परवाह में बहने लगते हे बुराइयो के नग्न चित्र खीचने में कला की कसौटी समझने लगते हे यह सताय हे की कोई मकान गिराकर ही उसकी जगह कोई नया मकान बनाया जाता हे पुराने ढकोसलों और बंधनो को तोड़ने की जरुरत हे पर इसे साहित्य नहीं कह सकते हे साहित्य तो वही हे साहित्य की मर्यादा का पालन करे ”|


91101119: thanks
smitamotiwale1983: it's ok bro thanks for giving answer
91101119: ok
smitamotiwale1983: what is your name
91101119: ali
91101119: what's your name
smitamotiwale1983: my name is kartik
91101119: hi kartik
91101119: which place from you
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