Hindi, asked by sanjayjain12981302, 6 months ago

आपके विचार मे निर्धनता दूर करने के लिए क्या क्या काम किए जा सकते है​

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Answered by Rupma
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श्रम की खपत

इस विधेयक के क्रियान्वयन से श्रम को कृषि से अन्तरित करने की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाएगी। क्योंकि कृषि क्षेत्र में केवल कुछ लोगों को ही नियमित रोजगार उपलब्ध हो पाता है। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग या तो स्वरोजगार में लगे होते हैं अथवा दिहाड़ी श्रमिक होते हैं। यह भी जरूरी है कि नए नियमित काम का बहुलांश अल्प कुशल श्रमिकों के लिए हो, क्योंकि दिहाड़ी मजदूरों को केवल 1.8 वर्ष तथा स्वरोजगार में लगे लोगों को 3.7 वर्ष की शिक्षा प्राप्त होती है। इसके मुकाबले नियमित रोजगार वाले कर्मचारियों की औसत शिक्षण अवधि 7.8 वर्षों की होती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि विकास की ऐसी रणनीति अपनाई जाए जिसमें निर्यात योग्य वस्तुओं के साथ-साथ विशाल तथा निरन्तर बढ़ रहे घरेलू बाजार के लिए ऐसी वस्तुओं का उत्पादन भी किया जाए जिसमें अधिक कौशल की आवश्यकता न हो।

लेकिन गरीबों की तादाद को दोखते हुए उन्हें कृषि से बाहर रोजगार में लगाने से भी सभी काम करने वाले निर्धनों की गरीबी दूर नहीं की जा सकती। इसलिए रोजगार गारण्टी अधिनियम के जरिये प्रत्यक्ष रोजगार-सृजन इस नीति का एक अनिवार्य अंग है।

(2000) और भारत में 16 प्रतिशत है। बाद में औद्योगीकरण करने वाले देश पहले के औद्योगिक देशों से प्रौद्योगिकी उधार लेते हैं और समय के साथ-साथ प्रौद्योगिकी की श्रमोन्मुखता कम होती जाती है। इसलिए, कुल रोजगार में नियमित मजदूरी वाले रोजगार की उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होगी और भारत सहित अधिकांश विकासशील देशों में स्वरोजगार का हिस्सा महत्त्वपूर्ण बना रहेगा। इससे भी दिहाड़ी श्रमिकों की संख्या कम करने और रोजगार गारण्टी पर विचार करने की जरूरत रेखांकित होती है। निर्धनों को समयबद्ध रोजगार की संवैधानिक गारण्टी देकर यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ग्रामीण भारत में रहने वाले दो-तिहाई निर्धन परिवार हर साल 6000 रुपए की अतिरिक्त आय की मदद से गरीबी रेखा से ऊपर उठ सकें।

पारदर्शिता सुनिश्चित करना

आलोचकों का तर्क है कि इस अधिनियम से नौकरशाही द्वारा भ्रष्टाचार के अवसरों का विस्तार होगा। लेकिन देश भर में देखा गया है कि सरकार व्यय की प्रभावी सामुदायिक निगरानी न केवल सम्भव है, यह कारगर भी है। इस तरह की कारगर निगरानी के लिए सूचना के अधिकार तथा सामाजिक लेखा परीक्षा की जरूरत होती है। दिल्ली, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा गोवा जैसे अनेक राज्यों ने सूचना का अधिकार सम्बन्धी कानून लागू किया है। मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने लोगों को सूचना उपलब्ध कराने के लिए कार्यपालक आदेश जारी कर रखा है। जनवरी 2003 में भारत सरकार द्वारा लागू किया गया सूचना की आजादी अधिनियम भी इस दिशा में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। एमकेएसएस जैसे सामाजिक संगठनों ने दिल्ली और राजस्थान में यह दिखा दिया है कि सूचना के अधिकार के द्वारा किस तरह नौकरशाही में भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है। इसलिए इसके आलोचकों को विषयान्तरण का दोषी माना जा सकता है।

असली समस्या यह है कि अधिनियम के वर्तमान स्वरूप में महत्त्वपूर्ण तत्वों का अभाव है। इसमें इस आशय का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं किया गया है कि रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों का नियन्त्रण, नियोजन एवं निगरानी पंचायती राज संस्थाओं द्वारा किया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत यह उल्लेख होना चाहिए कि निगरानी एजेंसियाँ सभी स्तरों पर चुने गए निकायों के प्रति उत्तरदायी और जवाबदेह होंगी तथा ग्राम सभाओं के द्वारा नियमित रूप से सामाजिक लेखा परीक्षा की जानी चाहिए। यह वास्तविक जनतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण का सार होगा।

गायब तत्व

विधेयक के संशोधित प्रारूप में कई तत्व गायब हैं। पहला, पूरे देश में इस अधिनियम का समयबद्ध रूप से विस्तार करने का कोई प्रावधान नहीं है। दूसरा, निगरानी और सामाजिक लेखा परीक्षा का अधिकार पंचायती राज संस्थाओं के पास नहीं है। उम्मीद की जाती है कि जिस संसदीय समिति के पास विधेयक के प्रारूप को विचार करने के लिए भेजा गया है, वह इन मुद्दों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करेगी।

इनके अलावा, इसमें विधेयक को कमजोर बनाने वाली अन्य धाराएँ भी हैं। पहला, वर्तमान प्रारूप में कहा गया है, 'न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 में शामिल प्रावधानों के बावजूद केन्द्र सरकार इस कार्यक्रम के तहत रोजगार प्राप्त श्रमिकों के भुगतान के लिए मजदूरी की दर तय कर सकती है।' इस तरह की धारा का इस्तेमाल कार्यक्रम का महत्त्व कम करने तथा मजदूरी की दर बहुत कम निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है।

दूसरे, प्रारूप में केवल 'निर्धन' परिवारों को रोजगार भत्ता देने की बात कही गई है। लेकिन ऐसे परिवारों की पहचान के लिए आमतौर पर प्रयोग की जाने वाली गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की सूची को प्रायः अविश्वसनीय माना जाता है। गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को रोजगार न दे पाने की स्थिति में विधेयक में कोई प्रावधान न कर उन्हें इसके दायरे से बाहर छोड़ दिया गया है। यह पारम्परिक रूप से इसके सफल तत्व के रूप में सुज्ञात 'आत्मचयन' के सिद्धान्त की अवहेलना करता है।

तीसरे, भूमि कानून पहले से ही महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रहग्रस्त हैं। इसके आलोक में यह विधेयक सभी ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त लिंग आधारित भेदभाव को इस आशय की एक धारा शामिल कर थोड़ा दुरुस्त कर सकता था कि किसी प्रखण्ड में रोजगार प्राप्त करने वाले श्रमिकों की कम-से-कम एक-तिहाई महिलाएँ होंगी। उदाहरण के लिए, यदि ग्रामीण घरों में बनाए जाने वाले शौचालयों के कार्यक्रम में महिलाओं को भी शामिल कर लिया जाए तो इससे गरीब ग्रामीण महिलाएँ दोगुना स्वाधीन होंगी- एक तो उनके हाथों में कमाई होगी, दूसरे वे बाहर मलत्याग के लिए जाने में शामिल अपमान, असुरक्षा, गोपनीयता के अभाव और स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम से बच पाएँगी

Answered by lakshaysoni01279473
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इससे भी दिहाड़ी श्रमिकों की संख्या कम करने और रोजगार गारण्टी पर विचार करने की जरूरत रेखांकित होती है। निर्धनों को समयबद्ध रोजगार की संवैधानिक गारण्टी देकर यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ग्रामीण भारत में रहने वाले दो-तिहाई निर्धन परिवार हर साल 6000 रुपए की अतिरिक्त आय की मदद से गरीबी रेखा से ऊपर उठ सकें।

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