Hindi, asked by minakshikatara02, 1 day ago

आपके विचार से मानवता से द्रोह भावना को कैसे छोड़ा जा सकता है

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Answered by chavanswarup456
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"मानवता" शब्द का सरल शब्दों में मतलब है, मानव की एकता , इंसानियत यानि मानवता , हर मानव, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, जाती-पाती का हो, कोई भी देश- शहर का हो, उसका एक मात्र मकसद होना चाहिए : मानव-एकता I देश- विदेशो में सारे संसार में मानव-परिवारों में कई प्रकार की समानताये ओर असमानताए होती है , हर मानव की शक्ल-सूरत, रंग-रूप, शारीरिक बनावट , रहन-सहन , सोच-विचार, बोली- भाषा आदि में समानताये भी होती है ओर उनमे असमानताए भी होती है , लेकिन प्रभु ने हम सब को पांच तत्वों से ही बनाया है , सब मे इस निरंकार-प्रभु का ही नूर होता है , आत्म-भाव से हर मानव एक समान है. " इक्कों नूर है, सब दे अन्दर , नर है , चाहे नारी ऐ , ब्रह्माण, खतरी, वेश्य , हरिजन इक दी खलकत सारी ऐ " " माटी एक अनेक भाति करि साजी साजनहारे" एक ही माटी है एक जैसे ही पांच तत्व है , इसमें कोई अंतर नही, जब यह सच्ची बात हमारे मन में स्थापित हो जाती है फिर सभी भेद मिट जाते है I हम इंसानियत की राह पर अग्रसर हो जाते हैं, भाई-चारा स्थापित हो जाता है .

अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद इंसान को मानव शरीर मिलता है , उन सभी योनियों में इंसानी योनी को उत्तम समझा जाता है "अवर जोनी तेरी पनिहारी , इस धरती पर तेरी सिक्दारी " मानव धर्म ने इंसान को इंसान से प्यार सिखाया है , मजहब नही सिखाता आपस में वैर रखना " , हम सब एक धरती पर बसने वाले है, इस धरती पर जन्म लेकर हम सब साथ-साथ जी रहे है, हम सबको एक परमात्मा का अंग बनकर जीना है I

मानवता से बड़ा कोई भी जीवन में धर्म नही होता है , मगर इंसान मानवता के धर्म को छोड़कर मानव के बनाये हुए धर्मो पर चल पड़ता है , क्योंकि यह सब उसके अज्ञानता के परिणाम होते है कि इंसान इंसानियत को छोड़कर मानव-धर्मो में जकड़े जाते है , धर्मो की आड़ में अपने मनो के अन्दर वैर , निंदा, नफरत, अविश्वास, जाती-पाति के भेद के कारण अभिमान को प्रथामिकता देता है , इसके कारण ही मानव मूल मकसद को भूल जाता है, मानव जीवन में मानव प्यार करना भूल गया है, अपने मकसद को भूल गया है, अपने जन्मदात्ता को भूल गया है इससे मानव के मनो में हमेशा दानवता वाले गुण विधमान होते जा रहे है , आज धर्म के नाम पर लोग लहू -लुहान हो रहे है, आज हम मानवता को एक तरफ रखकर अपनी मनमर्जी अनुसार धर्म को कुछ ओर ही रूप दे रहे है , जिस कारण इंसान ओर इंसान में दूरियां बढ़ रही हैं , कहीं जाति-पाति को मानकर कहीं परमात्मा के नामो को बांटकर तो कभी किसी और कारण से, इन कारणों से दिलो में नफरत बढती जा रही है , इंसानियत खत्म होती जा रही है , जहाँ पर इंसानियत खत्म होती है वहां पर धर्म भी खत्म हो जाता है , इंसान, इंसानियत को भूल गया है जो पैगाम हमेशा दिया जा रहा है "कुछ भी बनो मुबारिक है, पर सबसे पहले बस इंसान बनो." उसको अपने मनो में से अपने स्वार्थो के पीछे निकाल दिया है .अभी कुछ समय पहले ही मुंबई में तीन बम -काण्ड मानवता के विपरीत दानवता का उदाहरण हैं जहाँ पर कितने इंसानों का जान और माल का नुकसान हुआ ओर परिवार के परिवार उजड़ गये , आज का इंसान एक दूसरे इंसान का दुश्मन बना हुआ है सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ओर धर्मो के पीछे . किसी शायार ने भी कहा है कि :-" इंसान इंसान को डस रहा है ओर सांप बैठकर हस रहा है " सतगुरु बाबा जी मानव को ब्रह्म-ज्ञान देकर उसके मन के विचारो में रहन-सहन , सोच-समझ में, तथा उसकी जीवन-शेली में बदलाव करते है ,इंसान में सिर्फ ज्ञान के बाद ही अच्छे विचार तथा भावानाये प्रवेश करती है . ब्रह्म-ज्ञान के बाद ही सतगुरु बाबा जी की ओर संत-महापुरुषों जी की किरपा से ही नम्रता, विश्वास, सम्द्रष्टि , प्यार, सहनशीलता , परोपकार, आदि दिव्य गुंणों का समावेश होता है , इन संतो-महापुरुषों के संग रहकर इंसान में भी यह दिव्य गुण अपने-आप प्रवेश करते है , इन गुणों के कारण ही मानव-मानव के समीप आता है , ओर उनके दिलों की दूरियां खत्म होती है , इस सद्व्यवहार से ही मानव एकता कायम होती है .

हम अक्सर अरदास करते हैं "मन नीवां मत उच्ची" , उच्ची मत तो सिर्फ संतो की होती है , उच्ची मत मिलेगी तो मन निमाणा हो जायेगा ,विनम्रता वाले भाव से हम युक्त हो जायेगे , अहम के भाव दूर हो जायेंगे, अभिमान के भाव से छुटकारा मिल जाएगा इसलिए बाकी सारे जितने विकार है वो भी दूर हो जाते है तो इसलिए उच्ची मत धारण करना महापुरुषों ने कल्याणकारी माना है . हमेशा संतो-महापुरुषों के ये ही उपदेश आते है , यह आत्मा का परमात्मा से मिलाप करवा कर इसका कल्याण करना है , मन को एकचित करना है अगर मन इसके साथ जुड़ा रहता है , तो भरम मिटते है, अहम् मिट जाता है , नफरत ओर जुल्म-सितम मिट जाते हैं तो सुख मिलता है , आनंद मिलता है फिर हम दूसरों को रोता देखकर खुश नहीं होते हैं, जख्म देकर नहीं, भरकर खुश होते है , दूसरों को गिराकर कर नहीं, उठाकर खुश होते है , इस सत्य को जानकार हमारी इंसानियत की भावनाए बन जाती है, मानव में प्यार है तो गुलशन को सजाएगा , नफरत से तो वीरानी आती है, भला - सोचना , भला ही करना , मानव की असल निशानी है I

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Answered by rastogianushka007
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Answer:

मानवता से द्रोह भावना छोड़ने के लिए हमे प्रेम से रहना चहिए, मिल जुलकर रहना चहिए जैसे बहुत सारे पक्षी एक ही पेड़ पर अपना घोंसला बनाते है , मिल जुलकर खाते है और जितना नही खा पाते दूसरो के लिए छोड़ देते है , उन्हें की तरह हमे भी रहना चहिए।

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