आपने अखबार तथा पत्रिकाओं में कई कार्टूनिस्ट के कार्टून देखे होंगे यदि आपको इसी प्रकार का ट्यून बनाने का मौका मिले तो आप अपनी कल्पना अनुसार कार्टून बनाइए
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भारत में कार्टून की शुरूआत के बारे में विद्वानों में कई मत हैं। जिनमें जाॅन लीच की प्रेरणा को अधिक महत्व और समर्थन दिया जाता है। लीच ने 1841 में इग्लैण्ड में अपनी कार्टून कला का सफर आरम्भ किया। जिसमें उन्होंने लगभग 3 हज़ार व्यंग्य चित्र निर्मित किए। द पंच नामक अखबार ने और 1843 में इंग्लैण्ड के संसद भवन की दीवारों पर भी लीच ने कटाक्ष चित्र बनाए। उसी द पंच की तर्ज पर भारत में बरज़ोर जी के संपादन में हिन्दी पंच का जन्म हुआ। भारत में ही नहीं आस्ट्रेलिया में सिडनी पंच और कनाडा में भी इसे अपनाते हुए ग्रिप समाचार पत्र प्रकाशित हुआ। हालांकि अब भी कुछ विद्वान इस कला को बाहर से लाई और अपनाई नहीं मानते। उनका तर्क है कि भारत में लगभग 2 हज़ार वर्ष पुरानी अजन्ता की गुफाओं में मोटे पेट वाले वामनजी और परिचारिकाओं की चित्रावलियां ही नहीं मध्ययुगीन मंदिरों और ग्रंथों की विनोदपूर्ण आकृतियां इस बात की पुष्टि करती हैं कि भले ही कार्टून की विकसित कला विदेशों से आई हो, परन्तु भारतीय इतिहास में इस कला का विकास बहुत पहले ही हो चुका था।
आज कार्टून कला का जो परिष्कृत रूप हमारे सामने है, वैसा पहले नहीं था। आरंभिक दौर में एक चित्र के नीचे कुछ हास्यपूर्ण अथवा व्यंग्यात्मक संवाद लिखकर ही मनोरंजन किया जाता था। व्यंग्य की अपेक्षा हास्यप्रधान चित्रों का चयन अधिक था। 1873 में भारतेन्दु हरीशचंद्र के समय से ही समाचार पत्रों में हास्य, व्यंग्य पत्रकारिता पाठकों के होटों को अर्द्धचंद्राकार करने को विवश करने लगी थी। हरीशचंद्र मैग्जीन कुछ समय पश्चात हरीशचंद्र चंद्रिका हो गई। उसने चीज़ की बातें, बंदरसभा, ठुमरी जुब़ानी, शुतुमुर्ग परिके, चिडि़या मारका ठोला आदि शीर्षकों के स्तम्भों में हास्य-व्यंग्य चित्र प्रकाशित