Hindi, asked by chenaramkhakhal20, 11 months ago

आपने अनेक स्थानों पर वृद्धों का आदर-अनादर दोनों ही देखे होंगे। बस को भी जीवित वृद्ध मानकरबेबस बस की आत्मकथा' को अपने शब्दों में लिखिए।​

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Answered by contentwritersolvezo
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Answer:

मैं एक बस हूँ। मैं इस्पात और अन्य धातु से मिलकर बनती हूँ। मैं रोज़ ही कई यात्रियों को उनके गंतव्य स्थान तक पहुँचाती हूँ। मेरा निर्माण एक बड़ी वाहन निर्माता द्वारा किया गया था। मुझे दिल्ली परिवहन निगम के लिए बनाया गया। मुझे शीघ्र ही कालकाजी बस डिपो में यात्रियों की सेवार्थ नियुक्त कर दिया गया था। मुझे ५११ नबंर दिया गया। मैं नित्य ही कई यात्रियों को धौला कुँआ से लेकर बदरपुर बोर्डर तक ले जाती थी। जब तक मैं नई थी। मेरी रफ़्तार आश्चर्यजनक थी। बस चालक मुझे चलाने में गौरव का अनुभव करते थे। यात्री भी सदैव मुझ पर बैठकर प्रसन्न होती थे। मैं भी बड़े गर्व से सड़क पर चलती थी और हवा से बातें किया करती थी। लोग प्रायः कहते थे कि मैं सदैव सही समय पर उन्हें कार्यालय पर पहुँचा देती हूँ। मैं भी इस बात से बहुत प्रसन्न थी। परन्तु मार्ग मैं चलने वाले कुछ मनचलों के कारण मेरे साथ बड़ी भंयकर दुर्घटना घटी। उसमें मैंने किसी यात्री को हताहत तो नहीं होने दिया। परन्तु मेरे शरीर पर बहुत गहरे निशान पड़ गए। इस कारण मेरी गति और सुंदरता पर भी प्रभाव पड़ा। डिपो के प्रधान संचालक ने मेरी मरम्मत तो करवाई परन्तु मैं पहले जैसी स्थिति में नहीं आ पाई। अब मेरी रफ़्तार पहले से कम हो गई। कई बार तो मैं चलते-चलते रुक जाती थी। इस कारण लोगों को असुविधा होती थी। पहले जो मेरी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे। अब वह मुझ पर बैठने से कतराने लगे। परन्तु फिर भी मैं मार्ग में चलती रही। अपने कर्तव्य से मैंने कभी मुँह नहीं मोड़ा। लगातार अपनी सेवाएँ देती रही। पाँच साल होते होते मेरा शरीर क्षीण पड़ने लगा। सब मुझे बनाने वाली कंपनी को भला-बुरा कहने लगे। उन्हें लगा कि उन्होंने धोखा किया है। परन्तु किसी को यह याद नहीं रहा कि मैं एक भयंकर दुर्घटना का शिकार हुई हूँ। आखिर मेरी बार खराब होती स्थिति को देखकर डिपो वालों ने मेरी दोबारा मरम्मत करवाई और मुझे विद्यालय की सेवार्थ नियुक्त कर दिया। यहाँ पर मुझे अधिक कार्य नहीं करना पड़ता था। समीप के स्कूल से मुझे बच्चों को उनके घरों तक पहुँचाना होता था। यह काम मुझे बहुत पसंद आया और मेरी दशा थोड़ी ठीक होने लगी। अब मैं इसी काम को करके बहुत खुश हूँ।

Answered by anju94406
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Explanation:

बस की आत्मकथा

मैं सरकारी परिवहन विभाग की बस हूँ। आज सुबह मैं अहमदाबाद शहर के इनकम टेक्स चौराहे पर खड़ी थी। उस वक्त मेरे पास एक नई नवेली दुल्हन से बस आकर रुकी। उसने मुज पर आगे से पीछे तक नजर घुमाई और व्यंगात्मक ढंग से हँस पड़ी। मैं आज ऐसी हूँ की मुज पर कोई न हँसे तो अचरज होता है। पिछले चक्के के बाद का ज्यादातर हिस्सा निकाल दिया गया है। खिडकियों से ऊपर का हिस्सा, यात्रीयों के बैठने की सीटें, छत वगैरह निकाल दिए गए है ।अब छत सिर्फ चालक-कक्ष के ऊपर बची है। पहले मैं यात्रियों को लाती ले जाती थी। अब पानी की टंकी ढोने का कार्य करती हूँ।

पर जब मेरी 'जात-बस' [क्यों जी! जात-भाई या जात-बहन कहने का हक़ सिर्फ तुम इंसानों का है?] ही जब व्यंगात्मक ढंग से हँसी तो कलेजा तार तार हो गया। पर मैं कर भी क्या सकती हूँ? हाँ नई नवेली बस को देखकर मैं इतिहास में चली गयी। आहा हा हा हा ........ क्या सुनहरे दिन थे। फेक्टरी में कई 'चोटें' सहकर सुन्दर सजीला रूप पाकर मैंने बाहर की दुनिया में कदम रखा था। तब मन में कैसे कैसे लड्डू फूट रहे थे। मन में कैसे हिलोळ उठ रहे थे। मुझे एएमटीएस द्वारा खरीदकर परिवहन विभाग के काफिले में शामिल कर लिया गया। मैं जब पहली बार अहमदाबाद आई थी तो इस शहर को देखकर भौंचक्की रह गयी थी। मुझे लगा था कितना आआआआ बड़ा शहर है। हालांकि अब तो उस से दस गुना बड़ा है।

मैं अहमदाबाद की सड़कों पर दौड़ने लगी। 'कर्तव्य-पथ' पर दौड़ने के लिए रोज सुबह वक्त पर हाजिर हो जाती। देर रत तक कर्तव्य-पथ पर दौड़ती थी। यात्रियों को एक स्थान से दुसरे स्थान तक पहुँचाती। अहमदाबाद बहुत सुन्दर व हराभरा शहर है। यहाँ के लोग भी संस्कारी व सज्जन है। मगर ऐसा लगता है की शहर को कभी कभी 'पागलपन' का दौरा पड़ता है। उस वक्त यहाँ के लोगों में एक अजीब उन्माद फ़ैल जाता है जब धार्मिक दंगे फ़ैलते है। दंगो के दौरान हम बसों को बहुत सहन करना पड़ता है। दंगाई तोड़-फोड़ करते हैं, जलाते हैं, सीटें को तार तार कर देते हैं। सच कहूँ; 'बलात्कार' का शिकार सिर्फ औरतें ही नहीं बसें भी होती हैं। कभी कभी मन होता है की मैं शहर के निवासियों से पूछूं की तुम्हारी आपसी लडाई में बसों पर क्यों कहर बरपाते हो?

अहमदाबाद ने मुझे खुशियों के पल भी दिए हैं। 1892 में बने अहमदाबाद के पहले पुल एतिहासिक एलिसब्रिज की दायें बाएं बने नए पुलों का जब उद्घाटन हुआ; तब दायीं ओर बने पुल से गुजरनेवाली पहली बस मैं थी। उस दिन एलिसब्रिज का सिंगार देखने लायक था। एसा लगता था जैसे बुढ़ापे में जवानी फिर से आ गयी हो। सच कहूँ उस दिन मैं उस पर मोहित हो गयी थी। मैंने गाँधी ब्रिज, सरदार ब्रिज व सुभाष ब्रिज को भी बनते हुए देखा है।

जिस तरह शहर में बदलाव आया है। बसों में भी आया है।आज की बसें कैसी सुन्दर एवं सुविधायुक्त होती है। मैं जब कार्यरत हुई थी बसों में बिजली के लिए बल्ब इस्तेमाल होते थे। अब ट्यूब लाईट होती है। मैं 'लाल बस ' कहलाती थी; अब पचरंगी बसें हैं। आज की बसों में उतरने के लिए दरवाजा एकदम आगे होता है।मुज में निकास द्वार थोडा पीछे था। मेरी पीढ़ी की बसों में चालककक्ष एकदम अलग था। आज की कुछ बसों में दरवाजा एकदम बीचोबीच होता है, जो की दो दरवाजों जितना चौड़ा होता है। मुज में जो दरवाजे थे संकरे थे। आज बसों में रेडियो होता है। मुझे व मेरे चालक को संगीत का आनंद नहीं मिलता था। हाँ, कोई कोई शौक़ीन चालक ट्रांजिस्टर रखता था। मेरी पीढ़ी की बसें पेट्रोल या डीज़ल से चलती थी। जब की आज की ज्यादातर बसें सीएनजी से चलती है। बहुत परिवर्तन हो गया है।

मुझे गर्व है की मैंने पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाया है। सब से ज्यादा ख़ुशी मुझे इस बात की है की मैंने कभी एक्सीडेंट नहीं किया। किसी को टक्कर तक नहीं मारी। दंगो के दौरान मैं भी एकबार 'बलात्कार' का शिकार हुई हूँ। लेकिन मैंने दंगाईयों को माफ़ कर दिया है। क्यों की मुझे पता है वे 'राह भटके मुसाफिर' हैं। अपने पथ से भटके हुए हैं। भला सच्ची 'राह' को, सच्चे 'पथ' को मुज से ज्यादा कौन जानता हैं? खुद उन्हें पता नहीं था की वो क्या कर रहे हैं।

कर्तव्य निभाते निभाते मैं जीवन संध्या के किनारे आ चुकी हूँ। यात्री बस के रूप में तो बहुत पहले छुट्टी पा चुकी हूँ। अब जीवन को हाथों में [जल जीवन ही तो है] लिए लिए घुमती हूँ। कुछ समय बाद पूर्ण निवृत्ति पानेवाली हूँ। निवृत्ति बाद मुझे कबाड़ख़ाने भेज दिया जायेगा। जो की एक तरह से बसों का शमसान हैं। जहाँ मेरा जीवन पूर्ण होगा। भौतिक तत्वों में से बने मेरे शरीर के अस्तित्व को मिटा दिया जायेगा।

ता.01-11-2009 के दिन गुजराती बाल साप्ताहिक 'फूलवाड़ी' में छपी मेरी कहानी यथोचित परिवर्तन के साथ

कुमार एहमदाबादी

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