aapka mitra videsh me rehta hai usko manavta ka vishay batate hue patra likhe
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परोपकार की भावना लोक-कल्याण से पूर्ण होती है। हमें भी परोपकार भरा जीवन ही जीना चाहिए। विषय को स्पष्ट करते हुए अपने विचार लिखिए। परोपकार अथवा परमार्थ या लोक कल्याण की भावना हमारी संस्कृति का अटूट अंग है। हमारे देश के अतीत को देखा जाए तो असंख्य ऐसे परोपकारी महापुरुष मिल जाएँगे जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके परोपकार को महत्त्व दिया। परोपकार और परहित दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं – पर + उपकार, पर + हित । इन दोनों का आशय हैदूसरों का उपकार या हित करना। प्राचीन काल से ही मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैंस्वार्थ की तथा परमार्थ की। परमार्थ की भावना से किया गया कार्य ही परोपकार के अंतर्गत आता है।
परोपकार की भावना लोक-कल्याण से पूर्ण होती है। हमें भी परोपकार भरा जीवन ही जीना चाहिए। विषय को स्पष्ट करते हुए अपने विचार लिखिए। परोपकार अथवा परमार्थ या लोक कल्याण की भावना हमारी संस्कृति का अटूट अंग है। हमारे देश के अतीत को देखा जाए तो असंख्य ऐसे परोपकारी महापुरुष मिल जाएँगे जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके परोपकार को महत्त्व दिया। परोपकार और परहित दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं – पर + उपकार, पर + हित । इन दोनों का आशय हैदूसरों का उपकार या हित करना। प्राचीन काल से ही मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैंस्वार्थ की तथा परमार्थ की। परमार्थ की भावना से किया गया कार्य ही परोपकार के अंतर्गत आता है।
परोपकार की भावना लोक-कल्याण से पूर्ण होती है। हमें भी परोपकार भरा जीवन ही जीना चाहिए। विषय को स्पष्ट करते हुए अपने विचार लिखिए। परोपकार अथवा परमार्थ या लोक कल्याण की भावना हमारी संस्कृति का अटूट अंग है। हमारे देश के अतीत को देखा जाए तो असंख्य ऐसे परोपकारी महापुरुष मिल जाएँगे जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके परोपकार को महत्त्व दिया। परोपकार और परहित दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं – पर + उपकार, पर + हित । इन दोनों का आशय हैदूसरों का उपकार या हित करना। प्राचीन काल से ही मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैंस्वार्थ की तथा परमार्थ की। परमार्थ की भावना से किया गया कार्य ही परोपकार के अंतर्गत आता है। जब व्यक्ति ‘स्व’ की परिधि से निकलकर ‘पर’ की परिधि में प्रवेश करता है, तो उसके इस कृत्य को परोपकार कहा जाता है। संस्कृत में कहा गया है कि फल आने पर वृक्षों की डालियाँ झुक जाती हैं, जिसका आशय है कि फल आने पर वृक्ष अपने फल संसार की सेवा के लिए अर्पित कर देते हैं। प्रकृति का कण-कण परोपकार में लगा हुआ है। नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाते, सूर्य स्वयं तपकर दूसरों को प्रकाश तथा ऊष्मा देता है। रहीम ने ठीक ही कहा है
परोपकार की भावना लोक-कल्याण से पूर्ण होती है। हमें भी परोपकार भरा जीवन ही जीना चाहिए। विषय को स्पष्ट करते हुए अपने विचार लिखिए। परोपकार अथवा परमार्थ या लोक कल्याण की भावना हमारी संस्कृति का अटूट अंग है। हमारे देश के अतीत को देखा जाए तो असंख्य ऐसे परोपकारी महापुरुष मिल जाएँगे जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके परोपकार को महत्त्व दिया। परोपकार और परहित दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं – पर + उपकार, पर + हित । इन दोनों का आशय हैदूसरों का उपकार या हित करना। प्राचीन काल से ही मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैंस्वार्थ की तथा परमार्थ की। परमार्थ की भावना से किया गया कार्य ही परोपकार के अंतर्गत आता है। जब व्यक्ति ‘स्व’ की परिधि से निकलकर ‘पर’ की परिधि में प्रवेश करता है, तो उसके इस कृत्य को परोपकार कहा जाता है। संस्कृत में कहा गया है कि फल आने पर वृक्षों की डालियाँ झुक जाती हैं, जिसका आशय है कि फल आने पर वृक्ष अपने फल संसार की सेवा के लिए अर्पित कर देते हैं। प्रकृति का कण-कण परोपकार में लगा हुआ है। नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाते, सूर्य स्वयं तपकर दूसरों को प्रकाश तथा ऊष्मा देता है। रहीम ने ठीक ही कहा है‘वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर
परोपकार की भावना लोक-कल्याण से पूर्ण होती है। हमें भी परोपकार भरा जीवन ही जीना चाहिए। विषय को स्पष्ट करते हुए अपने विचार लिखिए। परोपकार अथवा परमार्थ या लोक कल्याण की भावना हमारी संस्कृति का अटूट अंग है। हमारे देश के अतीत को देखा जाए तो असंख्य ऐसे परोपकारी महापुरुष मिल जाएँगे जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके परोपकार को महत्त्व दिया। परोपकार और परहित दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं – पर + उपकार, पर + हित । इन दोनों का आशय हैदूसरों का उपकार या हित करना। प्राचीन काल से ही मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैंस्वार्थ की तथा परमार्थ की। परमार्थ की भावना से किया गया कार्य ही परोपकार के अंतर्गत आता है। जब व्यक्ति ‘स्व’ की परिधि से निकलकर ‘पर’ की परिधि में प्रवेश करता है, तो उसके इस कृत्य को परोपकार कहा जाता है। संस्कृत में कहा गया है कि फल आने पर वृक्षों की डालियाँ झुक जाती हैं, जिसका आशय है कि फल आने पर वृक्ष अपने फल संसार की सेवा के लिए अर्पित कर देते हैं। प्रकृति का कण-कण परोपकार में लगा हुआ है। नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाते, सूर्य स्वयं तपकर दूसरों को प्रकाश तथा ऊष्मा देता है। रहीम ने ठीक ही कहा है‘वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीरपरमारथ के कारने साधुन धरा सरीर।’