आर्यसमाज ने अविद्या नाश के लिए क्या कार्य किया?
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ऋषि दयानन्द ने अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि को आर्यसमाज का आठवां नियम बनाया।
2 years ago प्रवक्ता ब्यूरो
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–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
महर्षि दयानन्द ईश्वरीय ज्ञान वेदों के मर्मज्ञ एवं ऋषि कोटि के महापुरुष थे। उन्होंने गुरु विरजानन्द सरस्वती, मथुरा से वेदों के अध्ययन में प्रमुख सहायक एवं आवश्यक अष्टाध्यायी-महाभाष्य व्याकरण का अध्ययन व विशद ज्ञान प्राप्त किया था। वह सन् 1860 से सन् 1863 के मध्य लगभग ढाई वर्षों तक गुरु के चरणों में रहे। विद्या पूरी करने के बाद वह गुरुजी को देश व संसार से अविद्या का नाश एवं विद्या की वृद्धि करने का वचन देकर विदा हुए थे। उन्होंने अपने वचनों का जीवन भर प्राणपण से पालन किया। ऋषि दयानन्द ने अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि को आर्यसमाज का आठवां नियम बनाया। इस नियम में अविद्या के नाश की बात कही गई है। अविद्या क्या होती है? अविद्या मिथ्या ज्ञान को कहते हैं। मिथ्या का अर्थ झूठा व असत्य होता है। जो ज्ञान असत्य व मिथ्या होता है, सत्य के विपरीत होता है, वह अविद्या कहलाता है। ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में लोग सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त वेदों के ज्ञान व उसके सत्य एवं यथार्थ अर्थों को भूल चुके थे। इसके स्थान पर ईश्वर, जीवात्मा, ईश्वर उपासना, यज्ञ व अग्निहोत्र, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आदि के सत्य स्वरूप को भूल चुके थे। अतः इनको जानना व प्राप्त करना उनके लिये असम्भव था। इस कारण उनका जीवन अनेक प्रकार के दुःखों से युक्त था। उनके समय में मनुष्य समाज सत्य पर आरूढ़ न होकर सत्यासत्य मान्यताओं पर अवलम्बित था। अविद्या का प्रचलन व विद्या का ज्ञान न होने से मनुष्य, समाज व देश में अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानता, छुआछूत आदि अनेक प्रकार की बुराईयां विद्यमान थी जिसे दूर किया जाना आवश्यक था। समाज में अविद्या के प्रचार व व्याप्ति से मनुष्य का जीवन सुखों से रहित व दुःखों से पूरित था। अविद्या में निरन्तर वृद्धि की ही सम्भावना थी। अतः ऋषि दयानन्द ने देश के लोगों को विद्या व अविद्या का सत्य स्वरूप समझाया और सबको अविद्या का त्याग कर विद्या का ग्रहण व उसकी वृद्धि करने का उपदेश किया। यदि ऋषि दयानन्द के उद्देश्यों पर विचार किया जाये तो वह अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करना ही मुख्य प्रतीत होता है।