आरक्षण के विपक्ष में निबंध
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उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव जब सामने आया तो इसके विरुद्ध सर्वप्रमुख तर्क यह दिया गया कि इससे भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर नीचे आ जायेगा, यह आम जनता के जीवन से खिलवाड़ होगा, इससे वैज्ञानिक शोध का स्तर प्रभावित होगा और देश की प्रगति प्रभावित होगी— वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन यह तो बताइये कि जिस “चिन्ता” के चलते आप योग्यता का यह तर्क गढ़ रहे हैं, उस “चिन्ता” के आधार पर तो आपको एन-आर-आई- कोटे के तहत और कैपिटेशन फ़ीस के आधार पर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश के बरसों पहले लागू फ़ैसले का भी विरोध करना चाहिए था लेकिन इस मसले पर तो आपने चूँ भी नहीं किया! क्या अनिवासी भारतीयों और दस-दस लाख रुपये तक कैपिटेशन फ़ीस दे सकने वाले देशी धन्ना सेठों की सभी औलादें प्रतिभाशाली ही पैदा होती हैं इन संस्थानों में दाखि़ले के लिए धनिकों की जमात अपने कुलदीपकों की कोचिंग पर लाखों रुपये ख़र्च कर देती है। यदि आप इंसाफ़पसन्द हैं और योग्यता को लेकर चिन्तित हैं तो फिर आपने कभी सरकार से इस तरह की माँग क्यों नहीं की कि वह या तो ऐसे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों पर रोक लगाकर सभी अभ्यर्थी छात्रों के लिए निःशुल्क या सस्ती कोचिंग की समान व्यवस्था लागू करे या फिर दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और वंचित तबकों के लिए अलग से निःशुल्क कोचिंग का प्रावधान करे ताकि कोई योग्य व्यक्ति महज़ आर्थिक-सामाजिक कारणों से इन संस्थानों में प्रवेश से वंचित न रह जाये! यदि आप वास्तव में इंजीनियरिंग, मेडिकल और वैज्ञानिक शोध के गिरते स्तर की आशंका और इन क्षेत्रों में अयोग्य लोगों के प्रवेश को लेकर चिन्तित हैं, तो आपने मेडिकल, इंजीनियरिंग, पैरामेडिकल, तकनीकी और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लगातार तेज़ होती जा रही निजीकरण की लहर का कभी विरोध क्यों नहीं किया, जिसके चलते शिक्षा मात्र व्यापार या पैसे का खेल होकर रह गयी है! लाख योग्यता हो, पैसे और पहुँच के अभाव में आगे बढ़ पाने की रही-सही सम्भावनाएँ भी लगातार सिकुड़ती जा रही हैं! क्या आप इसके विरोध में भी कभी शामिल हुए हैं
अच्छा, तो आप देश की प्रगति को लेकर चिन्तित हैं! लेकिन यह तो बताइये, प्रति वर्ष हज़ारों डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक इस देश की आम जनता के ख़ून-पसीने से अर्जित संसाधनों से डिग्रियाँ हासिल करने के बाद, ज़्यादा से ज़्यादा पैसा पीटने के लिए अमेरिका और यूरोप की राह पकड़ लेते हैं! क्या आपने इस प्रवृत्ति का और इसे बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों का कभी विरोध किया यह तो आप जानते ही होंगे कि लाखों रुपये कैपिटेशन फ़ीस और महँगी फ़ीस चुकाने के बावजूद, एक डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक तैयार होने में अस्सी फ़ीसदी से भी अधिक ख़र्च सरकारी होता है, आप कहेंगे कि ऐसा इस देश में रोज़गार के अवसर और योग्यता की पूछ नहीं होने के कारण होता है! लेकिन तब आप सरकार की उन नीतियों का विरोध क्यों नहीं करते जो लगातार ‘रोज़गारविहीन विकास’ को बढ़ावा दे रही हैं अगर आप न्यायशील हैं तो आप उस सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे के विरोध में क्यों नहीं खड़े होते, जिसमें विकास के कार्यों और स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापक विस्तार की ज़रूरत तथा हर प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों एवं योग्य लोगों की मौजूदगी के बावजूद डॉक्टरों-इंजीनियरों-वैज्ञानिकों तक को रोज़गार नहीं मिलता
ये सभी सवाल उठाने के पीछे जो हमारा मूल मन्तव्य है, वह आप समझ चुके होंगे। सच्चाई यह है कि आरक्षण के विरोध की वर्तमान लहर के पीछे (पहले की तरह) मूलतः और मुख्यतः योग्यता, न्याय और राष्ट्रहित की कोई चिन्ता नहीं बल्कि सदियों पुराने, गहरे, दलित और पिछड़ा विरोधी जातिगत पूर्वाग्रहों, घृणा और प्रतिक्रियावादी संस्कारों की अहम भूमिका है। सवर्ण जाति का शिक्षित मध्य वर्ग यह सोचता है कि आरक्षण के कारण अब दलित और पिछड़े भी उनके बराबरी में आ जायेंगे और उनके विशेषाधिकारों में बाँट-बखरा करने लगेंगे।इसके बजाय, सरकार जैसे ही आरक्षण का शिगूफ़ा उछालती है, वह सोचता है कि पहले से ही सिकुड़ते शिक्षा और रोज़गार के अवसर इन दलितों और पिछड़ों के कारण अब और कम हो जायेंगे और समान एवं निःशुल्क शिक्षा तथा सबको रोज़गार के समान अवसर के सार्विक अधिकार के मसले पर निर्णायक संघर्ष की दीर्घकालिक तैयारी के बजाय वह आरक्षण का विरोध करने में जुट जाता है। इसके लिए न्याय और राष्ट्रहित के चाहे जितने तर्क गढ़े जायें, वास्तव में इसके पीछे गहन दलित-विरोधी और पिछड़ी जाति-विरोधी मानवद्वेषी, प्रतिक्रियावादी भावना और सदियों पुराने जातिगत प्रतिक्रियावादी संस्कार काम कर रहे होते हैं। ये बैनर बताते हैं कि आरक्षण का विरोध करने वाली मुख्यधारा सवर्णता और द्विजता की ज़मीन पर खड़ी होकर अपने विशेषाधिकारों की हिफ़ाज़त करना चाहती है। इसी के चलते दलित और पिछड़ी जातियों के आम लोगों में भी, स्वाभाविक तौर पर, जातिगत आधार पर एक प्रतिक्रिया पैदा होती है और समस्या की तह तक पहुँचने के बजाय और जाति-प्रश्न के निर्णायक एवं अन्तिम समाधान की किसी क्रान्तिकारी, आमूलगामी परियोजना पर सोचने-विचारने के बजाय वे आरक्षण के समर्थन में आँख मूँदकर खड़े हो जाते हैं। नतीजतन, आम आबादी का जातिगत पार्थक्य और द्वेषभाव एक बार फिर गहरा हो जाता है, उसे फिर एक नयी ख़ुराक मिल जाती है। शासक वर्गों की चालबाज़ी एक बार फिर सफल हो जाती है और साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और अँधेरगर्दी के विरुद्ध सभी शोषितों-उत्पीड़ितों को एकजुट करने की कोशिशों पर वे एक बार फिर प्रभावी ढंग से चोट कर पाने में सफल हो जाते हैं।
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"आरक्षण के विपक्ष में निबंध"
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां पिछड़े वर्गों का अनुपात महत्वपूर्ण है, वहां बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण सभी को समान अवसर देने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में आरक्षण नीति विफल है।
भारत के कई राज्यों में कुल आरक्षण कोटा 49% है और इसमें एससी, एसटी और ओबीसी शामिल हैं। लगता है कि प्रवृत्ति अधिक सकारात्मक कार्रवाई के बजाय रिवर्स भेदभाव में स्थानांतरित हो गई है। कुछ पिछड़े वर्ग के अभिजात वर्ग ने इस आरक्षण के आधार पर राजनीतिक और आर्थिक पकड़ हासिल की है।
उड़ीसा, एम. पी. या बिहार के कुछ दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बहुत से लोग इन नीतियों के बारे में जानते भी नहीं हैं। वे प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी रोजगार से भी वंचित हैं जो उन्हें आर्थिक रूप से पिछड़ा बनाता है। यह स्थापित करने में विफल रहता है जो राज्यों की स्थिति में असमानता का कारण बनता है।
वास्तव में जाति व्यवस्था का कोई उन्मूलन नहीं है। इसके बजाय दोनों पक्षों में विरोधी रवैये के कारण असमानता बढ़ती है। निम्न वर्ग के सदस्य को दृढ़ता से लगता है कि उनके पास पर्याप्त आरक्षण नहीं है और उच्च वर्ग के सदस्यों को लगता है कि उनकी मेहनत और योग्यता के बावजूद उन्हें समान अवसर नहीं मिले।