Accountancy, asked by reanwo1764, 1 year ago

आरक्षण कहा तक उचित है। इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिये

Answers

Answered by love4696
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Explanation:

बेशक, जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव का सवाल भारतीय समाज का एक सर्वाधिक बुनियादी और अहम सवाल है। शताब्दियों पुराने जातिगत पूर्वाग्रह और पार्थक्य आज भी अधिकांश आम भारतीय नागरिक के संस्कारों में गहराई से रचे-बसे हैं। फ़र्क़ यह है कि कहीं इसकी नग्न-निरंकुश अभिव्यक्ति देखने को मिलती है तो कहीं इसका बारीक और सूघड़” रूप सामने आता है। इसमें भी सन्देह नहीं कि दलित और कुछ पिछड़ी जातियाँ जातिगत अपमान और उत्पीड़न के अतिरिक्त, आबादी में अपने अनुपात के मुक़ाबले, सामाजिक-आर्थिक हैसियत में भी सवर्ण जातियों की तुलना में आज भी काफ़ी पीछे हैं। कुछ पिछड़ी जातियों ने आज़ादी के बाद के वर्षों में, गाँवों में पूँजीवादी फ़ार्मरों-कुलकों के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत की है और पूँजीवादी चुनावी राजनीति में भी उनकी भागीदारी सशक्त हुई है, लेकिन शहरी रोज़गारों और स्वतन्त्र बौद्धिक पेशों में वे आज भी काफ़ी पीछे हैं। पूँजी की सर्वग्रासी मार ने सवर्ण जातियों की एक भारी आबादी को भी सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा और परेशानहाल आम निम्न-मध्य वर्ग की क़तारों में धकेल दिया है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि औपनिवेशिक काल तक की अर्द्धसामन्ती सामाजिक संरचना में जो दलित और पिछड़ी जातियाँ सबसे नीचे की परतों के रूप में पिस रही थीं, उनमें से अधिकांश आज के पूँजीवादी पद-सोपान-क्रम में भी सबसे नीचे के पायदानों पर खड़ी हैं। उन्हें “ऊपर उठाने” के तमाम सरकारी उपक्रमों ने दलित आबादी के एक अत्यन्त छोटे हिस्से को सरकारी नौकरियों की (उनमें भी ज़्यादातर छोटी नौकरियाँ) सुविधा दी है और इसके बदले गाँवों-शहरों में उजरती ग़ुलामी का नारकीय जीवन बिताने वाली बहुसंख्यक दलित आबादी के प्रति आम ग़रीब एवं मध्यवर्गीय सवर्ण आबादी में पहले से ही मौजूद जातिगत पूर्वाग्रह, विग्रह एवं घृणा को नये सिरे से खाद-पानी देने का काम किया है।

hope In help

Answered by preet123456789
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Explanation:

बेशक, जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव का सवाल भारतीय समाज का एक सर्वाधिक बुनियादी और अहम सवाल है। शताब्दियों पुराने जातिगत पूर्वाग्रह और पार्थक्य आज भी अधिकांश आम भारतीय नागरिक के संस्कारों में गहराई से रचे-बसे हैं। फ़र्क़ यह है कि कहीं इसकी नग्न-निरंकुश अभिव्यक्ति देखने को मिलती है तो कहीं इसका बारीक और सूघड़” रूप सामने आता है। इसमें भी सन्देह नहीं कि दलित और कुछ पिछड़ी जातियाँ जातिगत अपमान और उत्पीड़न के अतिरिक्त, आबादी में अपने अनुपात के मुक़ाबले, सामाजिक-आर्थिक हैसियत में भी सवर्ण जातियों की तुलना में आज भी काफ़ी पीछे हैं। कुछ पिछड़ी जातियों ने आज़ादी के बाद के वर्षों में, गाँवों में पूँजीवादी फ़ार्मरों-कुलकों के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत की है और पूँजीवादी चुनावी राजनीति में भी उनकी भागीदारी सशक्त हुई है, लेकिन शहरी रोज़गारों और स्वतन्त्र बौद्धिक पेशों में वे आज भी काफ़ी पीछे हैं। पूँजी की सर्वग्रासी मार ने सवर्ण जातियों की एक भारी आबादी को भी सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा और परेशानहाल आम निम्न-मध्य वर्ग की क़तारों में धकेल दिया है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि औपनिवेशिक काल तक की अर्द्धसामन्ती सामाजिक संरचना में जो दलित और पिछड़ी जातियाँ सबसे नीचे की परतों के रूप में पिस रही थीं, उनमें से अधिकांश आज के पूँजीवादी पद-सोपान-क्रम में भी सबसे नीचे के पायदानों पर खड़ी हैं। उन्हें “ऊपर उठाने” के तमाम सरकारी उपक्रमों ने दलित आबादी के एक अत्यन्त छोटे हिस्से को सरकारी नौकरियों की (उनमें भी ज़्यादातर छोटी नौकरियाँ) सुविधा दी है और इसके बदले गाँवों-शहरों में उजरती ग़ुलामी का नारकीय जीवन बिताने वाली बहुसंख्यक दलित आबादी के प्रति आम ग़रीब एवं मध्यवर्गीय सवर्ण आबादी में पहले से ही मौजूद जातिगत पूर्वाग्रह, विग्रह एवं घृणा को नये सिरे से खाद-पानी देने का काम किया है।

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