आरक्षण पे अनुच्छेद। Answer as fast as possible please.
Answers
उच्चतम न्यायालया ने पूछा है कि क्या आरक्षण को अनंतकाल तक जारी रखा जा सकता है अतवा उसकी कोई समय सीमा है? हम सब जानते है कि संविधान निर्माताऔं ने पिछड़ों को अगड़ों के समकक्ष लाने के लिए दस वर्ष तक आरक्षण का प्रावधान किया था, जिसे दस-दस वर्ष तक बढ़ाने के बाद अब उसे अनंत कल तक बनाए रखने की व्यवस्था चल रही है ।
जो आरक्षण प्रारम्भ में संरक्षण की भावना से प्रदान किया गया था, वह अब अधिकार समझा जाने लगा है । इस समझ के कारण कि आरक्षण एक स्थायी व्यवस्था है, उसकी परिधि में शामिल होने का दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है । ऐसे में, न्यायालय के सवाल को एक महत्त्वपूर्ण संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए ।
आरक्षण के विरोधियों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी करते हुए उनके वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि मंडल आयोग की संस्कृति के अनुरूप 1992 में न्यायालय को अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि पिछड़ेपन के लिए जाति को आधार माना जाये । न्यायालय ने उन्हें टोकते हुए कहा कि यह विचार तथ्यात्मक नहीं है ।
न्यायालय के फैसले को उचित ठहराते हुए न्यायाधीश ने मुकुल रोहतगी की बात को सुधारा । न्यायाधीश ने कहा कि उस फैसले में पिछड़ेपन के लिए जाति को एकमात्र आधार नहीं, बल्कि एक आधार के रूप में स्वीकार किया गया था ।
न्यायाधीश ने कहा कि यदि उस निर्णय में अदालत ने यह कहा होता कि बिना क्रीमी लेयर को अलग किये हुए जाति एकमात्र पिछड़ेपन की पहचान का आधार है, तो आपका तर्क सही होता । बल्कि फैसले में यह कहा गया था कि जाति के आधार पर पिछड़ेपन की पहचान शुरूआत का बिंदु है और यदि आप समझते हैं कि यह आधार उचित नहीं है, तो फिर आपको उसके लिए वैकल्पिक आधार प्रस्तुत करना चाहिए ।
अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए रोहतगी ने आगे जो कुछ कहा, वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । उन्होंने भीमराव अंबेडकर के इस कथन का उल्लेख किया कि जाति राष्ट्रविरोधी है । संविधान के अनुच्छेद 15(1), 16(1), और 29(3) में स्पष्ट शब्दों में सरकारी सेवाओं और शिक्षा संस्थाओं में जाति को आधार बनाने से वर्जित किया गया है ।
न्यायालय ने क्रीमी लेयर को आरक्षण की परिधि बनाने से बाहर करने का जो निर्देश दिया था, उसका आज तक पालन नहीं हुआ है । कुछ राज्यों ने क्रीमी लेयर को आरक्षण की परिधि से बाहर निकालने के लिए अगर कानून बनाया भी है, तो वह न्यायालय के निर्देश को मुंह चिढ़ाने वाला साबित होकर रह गया है । दूसरा फैसला अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को प्रोन्नति में आरक्षण देने के खिलाफ था, पर ससद ने सर्वसम्मति से संविधान में संशोधन कर उस फैसले को उलट दिया ।
ज्यों-ज्यों आरक्षण को अधिकार के रूप में इस्तेमाल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों वंचित लोगों में हक के लिए सडक पर उतरने की मानसिकता गहराती जा रही है । संविधान में जाति के बजाय वर्ग को आरक्षण देने का प्रावधान है । हमने वर्ग की पहचान जाति के आधार पर करके सम्यक नीति के मान्य सिद्धांत की उपेक्षा की है ।
आजादी के पूर्व जातिविहीन समाज रचना के स्वप्न को आज पूर्णत: ध्वस्त करने के लिए यदि कोई जिम्मेदार है, तो वह आरक्षण की नीति है । यह एक सामाजिक समस्या के रूप में विकराल होती जा रही है, जिसका समाधान समाज को ही करना है । आवश्यकता आरक्षण की परिधि बढ़ाने की नहीं, उसे घटाने और पात्रता का मापदंड योग्यता को बनाने की है ।