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'आश्रमों की आवश्यकता'
जिस समाज में वृद्धाश्रम, अनाथ आश्रम, विधवा आश्रम आदि जैसे आश्रमों की भरमार हों, तो वह सामाजिक पतन और नैतिक पतन का सूचक होता है। वृद्धाश्रम की भरमार का सीधा अर्थ है कि संतान अपने बूढ़े माता-पिता से जीवन के उस मोड़ पर मुँह ले लेती है जिस समय उन्हें अपने संतान की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
जिस माता-पिता ने अपनी पूरे जीवन की पूंजी अपनी संतान को पाल पोस कर बड़ा कर किसी योग्य बनाने में लगा दी, वो ही संतान सक्षम होने पर अपने बूढ़े माता-पिता को अकेला छोड़ देती है, और उनको वृद्धाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। यह हमारे समाज के नैतिक पतन को दिखाता है।
इसी तरह विधवा आश्रम या अनाथ आश्रम भी हैं जिनकी आवश्यकता भी तभी पड़ती है जब हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती है। विधवाओं की संख्या बढ़ना या अनाथों की संख्या बढ़ना किसी समाज की प्रगति का सूचक नहीं है। इसलिए अनाथ आश्रमों की आवश्यकता पर अगर देखें तो आप समाज को आश्रमों की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने नैतिक बल और अपने सामाजिक कर्तव्य को मजबूत करने की आवश्यकता है ताकि ऐसे किसी आश्रम की जरूरत नहीं ना पड़े।
किसी भी बूढ़े मां-बाप को अपना घर छोड़कर किसी आश्रम का मुंह ना देखना पड़े। किसी विधवा स्त्री को विधवा होने पर किसी आश्रम का मुंह ना देखना पड़े, अगर वह युवा है तो उसे पुनः विवाह करने का अवसर मिले। अगर उसकी आयु ज्यादा चुकी है तो भी उसके बच्चे या उसके परिवार के अन्य सदस्य उसकी देखभाल करें।
आश्रमों की आवश्यकता समाज को तभी पड़ती है, जब उनके अपने उन्हें ठुकरा देते हैं और हमारे समाज के नैतिक बल को मजबूत करने की आवश्यकता है कि लोगों में आपसी संबंध इतने मजबूत हों कि किसी को अपना घर छोड़कर आश्रम जाने के लिए विवश ना होना पड़े। इसलिए आज हमें आश्रमों की नहीं बल्कि अपने समाज के लोगों में नैतिक बल को मजबूत करने की आवश्यकता है और लोगों में भावनात्मक संबंध मजबूत करने की आवश्यकता है, ताकि किसी का कोई अपना किसी अपने को ना छोड़े।
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