आत्म – ननभररतय पर अनुच्छेि सलख ए
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पारिभाषिक रूप से देखें, तो आत्मनिर्भरता का तात्पर्य होता है- किसी वस्तु अथवा कार्य हेतु स्वयं पर निर्भर रहना । हम अपने चारों ओर की प्रकृति पर नजर डालें, तो पता चलता है कि छोटे-बड़े जीव-जन्तु भी आत्मनिर्भर हैं ।
उन्हें अपने भोजन के लिए भी दूसरे पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती । कुछ पशु-पक्षी तो जन्म लेने के तुरन्त बाद चलने-फिरने एवं स्वयं भोजन प्राप्त कर सकने में सक्षम हो जाते हैं ।
मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है, उसे जन्म के बाद कुछ समय तक अपने परिवार पर निर्भर रहना पड़ता है । इसके बाद आत्मनिर्भर होने तक वह परिवार के साथ-साथ समाज का सहयोग भी प्राप्त करता है ।
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासम्भव बचने की कोशिश करता है । इसी कारण वह अपने कार्यों एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है ।
आत्मनिर्भरता केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है । स्वतन्त्रता के बाद कई वर्षों तक भारत खाद्यान्न के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर था । इसके कारण इसे कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था ।
साठ के दशक में हुई हरित क्रान्ति के बाद भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना । यह भारत की आत्मनिर्भरता का ही नतीजा रहा कि देश की जनता की खुशहाली में स्वाभाविक तौर पर वृद्धि हुई ।
हमारी भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा है- “एक राष्ट्र की शक्ति उसकी आत्मनिर्भरता में है, दूसरी से उधार लेकर काम चलाने में नहीं ।” आत्मनिर्भरता से ही मनुष्य की प्रगति सम्भव है ।
आत्मनिर्भर व्यक्ति ही अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण करने में सक्षम होता है । बैसाखी के सहारे चलने बाले व्यक्ति की बैसाखी छीन ली जाए, तो वह चलने में असमर्थ हो जाता है । ठीक यही स्थिति दूसरों के सहारे जीने वाले लोगों की भी होती है ।
मनुष्य यदि सिर्फ प्रकृति पर ही निर्भर रहता, तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल की है, उसे वह कभी प्राप्त नहीं कर पाता । मनुष्य की आत्मनिर्भरता ने ही उसे पशुओं से अलग किया है ।
हालाँकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक आत्मनिर्भर होते है, किन्तु आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की चाह मनुष्य में अधिक होता है । वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है, इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है ।
आत्मनिर्भरता की उसकी यही चाह उसकी प्रगति का कारण बनती है । गृहस्थ जीवन से पहले व्यक्ति का आत्मनिर्भर होना अत्यन्त आवश्यक है । दूसरों पर निर्भर लोगों के लिए गृहस्थ जीवन दु:खों का पहाड़ साबित होता है ।
इसलिए गृहस्थ जीवन की शुरूआत से पहले लोग रोजगार की तलाश में जुट जाते हैं । आत्मनिर्भरता आत्मविश्वास को बढ़ाने में सहायक होती है, जिसके कारण सफलता की राह आसान हो जाती है ।
आत्मनिर्भर व्यक्ति अपने समय का सदुपयोग भली-भांति कर पाने में सक्षम होता है । वह समाज में प्रतिष्ठा का पात्र बनता है । यदि कोई महान् लेखक बनने का सपना देखता है, तो उसे स्वयं लिखना ही पड़ेगा, दूसरों पर निर्भर रहकर वह महान् लेखक कदापि नहीं बन सकता ।
एक वैज्ञानिक स्वयं अपने शोध द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है, दूसरों के शोध के आधार पर वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता । खिलाड़ियों को जीत का स्वाद चखने के लिए स्वयं खेलना पड़ता है ।
यदि कोई छात्र अपने जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है, तो उसे स्वयं परीक्षा में शामिल होना पड़ेगा और परीक्षा में मनोवांछित सफलता प्राप्त करने के लिए उसे स्वयं अध्ययन करना होगा ।
इसी प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में उसे ही सफलता मिलती है, जो आत्मनिर्भर होता है । भारत पारिजात में लिखा है- “जो आत्म-शक्ति का अनुसरण करके संघर्ष करता है, उसे महान् विजय अवश्य मिलती है ।”
भारत में स्त्रियाँ प्रायः अपने परिजनों पर निर्भर रहा करती है । उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की योजनाओं की शुरूआत की गई है ।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में भी इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस बात को सुनिश्चित किया गया है कि इस योजना का कम-से-कम 33% लाभ महिलाओं को मिले ।
इसके अतिरिक्त, आँगनबाड़ी योजना के अन्तर्गत भी उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई कढ़ाई एवं बुनाई जैसे विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रमों की शुरूआत की गई है । युवाओं की बेरोजगारी दूर कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए देश में व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है ।
जब तक भारत परतन्त्र था, यह अपने विकास के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था, लोग चाह कर भी अपना एवं देश का भला करने में असमर्थ थे । आजादी प्राप्त करने के बाद भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ एवं आज स्थिति यह है कि यह धीरे-धीरे दुनिया के विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है ।
महापुरुषों के जीवन से भी हमें आत्मनिर्भरता की शिक्षा मिलती है । महात्मा गाँधी अपना सामान्य कार्य भी खुद किया करते थे । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी “दैव दैव आलसी पुकारा” लिखकर हमें परिश्रमी एवं आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी है ।
दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करती है । दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसके अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है । हमारी स्वाभाविक सृजनशीलता एवं सोचने की शक्ति नष्ट हो जाती है । हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है ।
हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते । ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है । स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई सम्पत्ति के भोग का आनन्द ही अलग होता है । दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनन्द से सदा वंचित रहता है ।
यदि हम किसी का सहारा लेना चाहते हैं, तो हमें अपने अन्दर छिपी योग्यता, अपने मनोबल और अपने आत्मविश्वास का सहारा लेना चाहिए, क्योंकि उससे व्यक्ति आत्मनिर्भर बनता है और आत्मनिर्भर व्यक्ति के लिए सफलता के दरवाजे हमेशा खुले होते हैं ।