आत्मनः प्रतिकूलानि परेभ्यो यदि नेच्छसि।
परेषां प्रतिकूलेभ्यो, निवर्तय ततो मनः॥
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श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् ‘धर्म का सर्वस्व जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।’
अपमान, तिरस्कार, मारपीट, गाली क्या आपकी आत्मा को अच्छी लगेगी? कोई बलवान मनुष्य यदि आपको सताए, आपका गला दबाए तो उससे आपको दुःख होगा या हर्ष? दुःख ही होगा। अतः मन में यह पक्का करना है कि ‘जितनी वस्तु मुझे दुःख रूप लगे, उनका मैं दूसरों के प्रति आचरण न करूं।’ इतना यदि प्रत्येक व्यक्ति सीख जाए तो संसार में कोई झगडा ही न रहे। यही उत्तम कोटि का धर्म है।
आप में मात्र इतना विवेक और विचार आ जाए कि ‘मेरा धन कोई चुरा ले तो मुझे कष्ट होगा, अतः मुझे भी किसी का धन नहीं चुराना है। मेरी अमानत कोई छीन ले या हडप कर जाए तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी की अमानत हडपने का विचार ही न करूं, मेरे साथ कोई छल-षडयंत्र करे तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी के साथ छल-षडयंत्र न करूं, मुझे कोई सताए तो मुझे दुःख होगा, अतः मैं किसी को नहीं सताऊं, मेरी कोई हंसी उडाए, उपहास करे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा, अतः मैं भी किसी की हंसी न उडाऊं, किसी का उपहास न करूं’, तो सारी समस्या ही समाप्त हो जाए। इसी का नाम मनुष्यत्व और मानवता है। यदि आप में यह विवेक नहीं है तो आप में मानवता नहीं है। यदि इस प्रकार का विवेक और विचार आ जाए तो अनीति, हिंसा, असत्य, चोरी, दूसरों के घर में बलात् घुसना, दूसरों का धन छीनना, क्रोध अथवा अक्कडपन रहेगा ही नहीं।