आत्मनिर्भरता निबंध के लेखक हैं- *
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“मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जो युवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक न एक नया अगुआ ढूंढा करते हैं और उनके अनुयायी बना करते हैं, वे आत्म संस्कार के कार्य में उन्नति नहीं कर सकते । उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्पत्ति आप स्थिर करना, दूसरों की उचित बातों का मूल्य समझते हुए भी उनका अन्धभक्त न होना सीखना चाहिए ।”यह सहयोग यदि आवश्यकता से अधिक मिलने लगे, तो वह दूसरी पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है । दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतन्त्रता का कारण भी बन जाती है । दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, इसलिए कहा गया है- ”पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।” वास्तव में, स्वावलम्बन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है । आत्मनिर्भरता की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है ।
उसे इसके लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती । कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में उर्मिला लक्ष्मण संवाद के रूप में स्वावलम्बन को महिमामण्डित करते हुए लिखा है-
“यह पापपूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो,
फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।”