आदिवासी बाजार में जरूरतों की सभी चीजें प्राप्त हो जाती
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आदिवासी अपनी आस्था, अपने विश्वास, अपने धर्म का बाजार कभी नहीं चलाते. संगठित धर्मों और आदिवासियों की आस्था के बीच यह बड़ा फर्क है.
पेन को लेकर नृत्य करते एक ही गोत्र के वंशज. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)
दुनिया भर में मुख्यधारा या व्यवस्थित धर्म के अनुयायियों का आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था पर दबदबा है. इस व्यवस्था में वे उन्हें प्राथमिकता देते हैं, जो उनका धर्म अपना लेते हैं. जैसे, उनके शिक्षण संस्थानों में उनका धर्म मानने वालों को प्रमुखता मिलती है. उनकी इस बाजारवादी व्यवस्था में, जिसमें नौकरियों का आधार किताबी ज्ञान है, प्रकृतिपूजक आदिवासियों का लगातार पिछड़ते जाना और अपने प्राकृतिक संसाधनों को गंवाना भी तय है.
इस स्थिति में मुख्यधारा के किसी धर्म को अपनाने वाले आदिवासी आर्थिक रूप से ज्यादा समृद्ध दिखने लगते हैं और इसका असर प्रकृतिपूजक आदिवासी समाज पर होने लगता है.हम मानते हैं कि व्यवस्थित धर्मों की शुरुआत का श्रेय आर्यों को है. और उनकी व्यवस्था में आदिवासियों के अलिखित ज्ञान, पुरखों का विस्डम और प्रकृति की शक्तियों को समझने की हमारी ताकत पूरी तरह ख़त्म कर दी जाती है.
आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं से दूर कर देने के कारण वे गांव-घर के बुजुर्गों के देशज ज्ञान की बातें समझ नहीं पाते. एक साजिश के तहत आदिवासियों की भावी पीढ़ियों को उनकी संस्कृति, उनकी परंपरा, उनके पीछे छिपे दार्शनिक पहलुओं को समझने से वंचित कर दिया गया है.
छत्तीसगढ़ में गोंड आदिवासी समाज की ‘कोया बुमकाल क्रांति सेना’ से जुड़े युवाओं का यह कहना है. इससे जुड़े युवा विगत 15 सालों से यहां आदिवासियों के बीच अपनी संस्कृति, परंपरा, भाषा को मजबूत करने और लोगों को एकजुट करने का काम कर रहे हैं.
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