आदिवासी समुदाय वनो पर आश्रित हैं इस कथन को समझाइये
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आदिवासियों एवं वनों का घनिष्ठ सम्बंध है। हमारी संस्कृति मूलत: अरण्य संस्कृति रही है। वन एवं वन्य जीवों को वहाँ के स्थानीय वनवासियों द्वारा अपने परिवार का अंग माना गया। वनवासी समाज द्वारा वनों में स्वंत्रतापूर्वक रहकर वहीं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुये सदैव वनों को संरक्षित करने का कार्य किया है। विगत कुछ दशकों में आदिवासियों एवं वनों के बीच दूरी बढ़ी है। वे वनवासी जो वनों एवं वन्यजीवों के स्वाभावितक मित्र थे, उन्हें वन का विरोधी मानते हुए उनके परम्परागत अधिकारों में कटौती की गई। हाल ही में भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति व अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 के माध्यम से पुन: आदिवासियों को उनका पारम्परिक अधिकार दिलाने की दिशा में ठोस कदम उठाया गया।
आदिवासी एवं वनों के बीच प्रगाढ़ सम्बंधों का ध्यान रखते हुए वन विकास निगमों सहित वन प्रबंध के लिये उत्तरदाई सभी अभीकरणों का प्रधान कार्य वनों में तथा उसके चारों ओर रहने वाले आदिवासियों को लाभदायक रोजगार उपलब्ध कराने के अतिरिक्त वनों की सुरक्षा, पुनरुद्धार एवं विकास के लिये आदिवासियों के लिये सहायता दिया जाना चाहिये। आदिवासियों के परम्परागत अधिकारों एवं हितों की रक्षा करते समय वानिकी कार्यक्रमों पर ध्यान देना चाहिये। वनों में ठेकेदारों के स्थान पर आदिवासी सहकारी समितियों, श्रमिक सहकारी समितियों अथवा राजकीय निगम जैसे संस्थान से कार्य कराया जाना चाहिये।