आदिवासियों ने शहरों में रहना क्यों शुरू किया?
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बस्तर और कुछ अन्य जगहों के आदिवासी, सीजन में पहली बार पकने वाले फल को नहीं खाते हैं| तर्क ये है कि ये पेड़ से गिरते हैं और जमीन में फिर से नए पौधे उगाते हैं| ये पृथ्वी और वातावरण को सतत प्रगतिशील और नष्ट होने से बचाये रखते है| दूसरी, तीसरी, या उससे आगे पकने वाले फलों को खाया जाता है| अक्सर, आम खाने के बाद गुठली को फेंकना एक बात है, लेकिन पहली सीजन के पके फल इसलिए नहीं खाना की प्रकृति भविष्य में सतत जीवन बनाये रखे और पृथ्वी पर अनवरत जीवन बना रहे, आदिवासी सोच की ये एक मिसाल है जो विरले देखने को मिलती है| क्या ऐसी सोच रखने वाले समुदाय भला प्रकृति को सहेज कर रखने में सक्षम नहीं है, या तथाकथित मुख्यधारा के विद्वान की दिमागी उत्पन्न है की जंगल जानवरों के लिए है आदिवासियों के लिए नहीं| अभ्युदय का वो सतत समय याद है जब मनुष्य खेती करना सीखा, एक साथ रहना शुरू किया और प्राकृतिक चीजों को सहेजना शुरू किया, लोहे गलाने की पद्धति कमोबेश जंगलों में रहने वाले असुरों ने विकसित किया| आज तथाकथित सभ्य समाज को जंगल के इलाके वाले आदिवासी नहीं चाहिए, शायद शहरी लोगों की नजर में वो विकास विरोधी है! वैसे भी अ(सभ्य) समाज कभी भी आदिवासियों को जानवरों से बेहतर नहीं समझा, और जब आदिवासी जंगल और जानवरों के साथ रहना चाहते हैं तो रहने दो न उन्हें जानवरों के साथ, इनकी सभ्यता अपने गति से उदय होगी| मोगली का जानवर के साथ रहने वाली जीवन पर फिल्म करोड़ो का कारोबार कर जाती है और शहरी समाज उसका आनंद लेती है, लेकिन लगता है हकीकत बिल्कुल इसके उलट है|
इन तमाम – विकास, राजनीति और जिन्दा रहने की कवायद की बहसों के बीच कुछ अजीबो-गरीब निर्णय राज्य द्वारा लिया जाने लगा है जो की आदिवासी समुदाय के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े करता है| पहले, अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार कानून पर छेड़छाड़, फिर रोस्टर, फिर जंगल के इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को घर खाली करने का आदेश ये सारे निर्णय आदिवासियों के अस्तित्व पर ही तो आक्रमण है| उच्चतम न्यायालय के 5 जनवरी 2011 के मार्कण्डेय काटजू के खंडपीठ के निर्णय में अनुसूचित जनजाति/ आदिवासी को भारत के प्रथम मूलवासी का वंशज कहा गया है| इस निर्णय के बाद यहाँ आदिवासियों में थोड़ी सी आस जगी थी लेकिन अब ऐसे लगता जैसे आदिवासी ही इस देश के लिए सबसे बड़ा रोड़ा है| जिनकी संख्या लगभग 8% है लेकिन भारतीय प्रजातंत्र में हाशिये और अवहेलना ही मिला है| वास्तव में, आदिवासियों की राजनीतिक उपयोगिता के आधार पर इन्हें तृतीय श्रेणी का ही नागरिक समझा गया है| खैर, बलत्कृत नंदा बाई अपना केस जीत गयीं, लेकिन क्या उनके दर्द भर गए, क्या बलात्कार और अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत भी कुछ ही सालों की कैद की सजा होती है?
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